हमास। ख़बरों की दुनिया से इतर शायद ज़्यादातर लोग इस शब्द से वाक़िफ़ न होंगे। पर इस हमास के हौसले ने मेरे दिल को छू लिया।
हमास, इज़राइल की आकांक्षा तले दबे कुचले फिलिस्तीनियों का संगठन है. सिद्धांत इसका इज़राइल का विरोध है. रास्ता इसने उग्रवाद का अपनाया है। फिलिस्तीन के इलाक़े गाज़ा पट्टी की जनता ने इसे अपने ऊपर शासन करने का हक़ भी क़रीब तीन साल पहले दिया था। चुनावों में हमास की जीत हुई थी। भले ही ये मजलूम फिलिस्तीनियों की इच्छाओं की आवाज़ बुलंद करता है, पर हमास को पश्चिमी ताक़तें, आतंकी संगठन मानती हैं। वजह ये कि हमास ने कई बार इज़राइल पर आत्मघाती हमले किए हैं. रॉकेट के हमले तो पिछले कई सालों से लगातार करता रहा है. और गाज़ा पट्टी पर इज़राइल का हमला इन्हीं रॉकेट हमलों को रोकने के लिए है.
एक तरफ़ इज़राइल की सेना है. अति आधुनिक हथियारों से लैस. उसकी पुश्त पर अमेरिका समेत तमाम पश्चिमी ताक़तों का हाथ है. तमाम मसलों पर अमेरिका से इतर राय रखने वाला रूस भी इस मसले पर इज़राइल औऱ अमेरिका के साथ है। वजह ये कि बड़ी संख्या में रूस से आए यहूदी इज़राइल में बसे हैं। औऱ इनके रिश्तेदारों की अच्छी ख़ासी तादाद अभी भी रूस में बसती है।
पर बात हमास की। छोटा सा संगठन है। इमदाद के नाम पर उसे हासिल है ईरान की सरपरस्ती। जो भी थोड़ा बहुत और पैसा मिलता है वो मिस्र के इस्लामी उग्रवादियों के रास्ते आता है। कुल मिलाकर हमास और इज़राइल की तुलना चींटी औऱ हाथी जैसी है। मदमस्त हाथी रूपी इज़राइली फौज निकली है चींटी यानी हमास को कुचलने। चींटी को कुचलने के रास्ते में इज़राइल की सेना ने चींटियों सरीखे सैकड़ों फिलिस्तीनियों को मार डाला है। हमास के नेता-कार्यकर्ता तो ख़ैर मारे ही गए हैं। पर इतनी ताक़तवर सेना से लड़ते हुए हमास ने हौसला नहीं छोड़ा। वो गाज़ा या दूसरे फिलिस्तीनी इलाक़ों पर इज़राइल का राज मानने को तैयार नहीं। फंड की कमी सही, इरादों की नहीं है। उग्र जियोनिज़्म के आगे सऊदी अरब, मिस्र और सीरिया जैसे देशों ने हथियार से डाल रखे हैं, पर हमास ऐसा करने को तैयार नहीं। हमास के छोटे-छोटे रॉकेट, किसी इज़राइली को मार तो नहीं पाते पर उनकी नींद ज़रूर हराम किए रहते हैं। फिलिस्तीनियों की ज़मीन पर अपने घर बनाकर बसे इज़राइलियों के जे़हन में हर वक़्त हमास के मरगिल्ले रॉकेटों का ख़ौफ़ तारी रहता है। ये उन्हें न चैन से जीने देता है और न ही सोने. बस इसी चैन की तलाश में इज़राइली सेना सैकड़ों बेगुनाह फिलिस्तीनियों को मार चुकी है। बड़े बड़े टैंक, जहाज़ और बम लेकर गाज़ा को नेस्तनाबूद करने में लगी है. इरादा है हमास को हमेशा के लिए ख़त्म कर देना। पर इरादों के मजबूत हमास के लड़ाके, मरने को तैयार हैं, झुकने को नहीं। वो चाहते हैं कि इज़राइल के ज़ेहन में उनके रॉकेटों का ख़ौफ बना रहे। ताकि इज़राइली नेता कभी ये न सोचें कि अब फिलिस्तीन पूरी तरह से उनका हुआ। इस जज़्बे को सलाम नहीं तो औऱ क्या करें।
हमास का यही इऱादा अगर हम भारतीय अपना लें तो। अगर पाकिस्तानी हुक्मरानों की नींदें हराम करने का कोई नुस्खा निकाल सकें। अगर चैन से न जी पाने का ख़ौफ उन आतंकियों पर आयद कर सकें जो खुफिया ठिकानों पर बैठकर हमारे ऊपर हमला करने की साज़िशें रचते हैं, तो। जिसे अपने चैन की फिक्र होगी, वो दूसरे का चैन क्या छीनेगा। अगर भारत ऐसी कोई तरक़ीब बना सके कि हमास जैसा ही कोई हौव्वा, इन मरदुए आतंकियों को दिखा सके तो बात बन सकती है।
बुधवार, 14 जनवरी 2009
रविवार, 11 जनवरी 2009
पाकिस्तान का पॉवर स्ट्रगल
मुंबई पर आतंकी हमले के बाद भारत पाकिस्तान के बीच तनातनी से इस्लामाबाद में चल रहा पॉवर स्ट्रगल खुलकर सामने आ गया है। तीन शख्सीयतें ये साबित करने पर आमादा हैं कि वो ही पाकिस्तान की हुकूमत चला रहे हैं। हालांकि उन तीनों को चुनौती एक चौथे पाए से मिल रही है जो कोई व्यक्ति तो नहीं पर इन तीनों पर भारी ज़रूर है। जिहादी तंज़ीमें।
हिंदुस्तान ने मुंबई हमलों से जुड़े सबूत पाकिस्तान को क्या सौंपे वहां की सियासत में उबाल ही आ गया। तीन चार रोज़ के भीतर वहां के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार महमूद अली दुर्रानी ने मान लिया कि कसाब पाकिस्तानी है। इंकार करते करते वहां की गिलानी सरकार ने भी मान लिया कि हां, साहब कसाब हमारा ही बंदा है। पर दुर्रानी साहब का ये बयान वज़ीरे आज़म गिलानी साहब को ज़रा भी रास न आया। कुछ ही घंटों में उन्होंने दुर्रानी को बाहर का रास्ता दिखा दिया। और इसका ऐलान एक टीवी चैनल को बुलाकर भी ख़ुद ही कर दिया ताकि कोई शको-शुबहा न रहे। वैसे तो पाकिस्तान के मौजूदा वज़ीरे आज़म, यूसुफ़ रज़ा गिलानी और सदर आसिफ़ अली ज़रदारी के बीच तनातनी की ख़बरें वहां की मीडिया में काफ़ी दिनों से थीं। कुछ लोग तो यहां तक कयास लगाने लगे थे कि ज़रदारी जल्द ही गिलानी सरकार को बर्ख़ास्त करके कमान अपने हाथों में लेने वाले हैं। पर पीएम और प्रेसीडेंट, दोनों के खेमों ने इन ख़बरों को बेवजह की बताकर खारिज कर दिया। पर दुर्रानी को लेकर विवाद ने इस सच को सबके सामने पेश कर दिया। बर्ख़ास्तगी के बाद दुर्रानी ने ख़ुद कहा कि उन्होंने कसाब के पाकिस्तानी होने का बयान ज़रदारी साहब की इजाज़त से दिया। इसकी सच्चाई पर इसलिए भी यक़ीन किया जा सकता है कि राष्ट्रपति की क़रीबी सूचना मंत्री शेरी रहमान ने भी मोबाइल मैसेज से कसाब के पाकिस्तानी होने की ख़बर कई विदेशी सफ़ीरों को दी। अपने आपको पाक साफ बताने के लिए दुर्रानी ने पाकिस्तान के निज़ाम के सबसे मज़बूत पाए फौज को भी विश्वास में लिया और दावा किया कि उन्होंने कसाब को पाकिस्तानी बताने से पहले खुफिया एजेंसियों से बात करके इसकी तस्दीक़ कर ली थी।
पाकिस्तान के मौजूदा पॉवर स्ट्रगल की शुरुआत वैसे तो पिछले साल ज़रदारी की ताज़पोशी से ही हो गई थी। पर मुंबई हमले ने इसमें नया एंगल दे दिया। असल में ज़रदारी साहब, फौज की मुश्कें कसना चाहते हैं और चाहते हैं कि सारी ताक़त उनके हाथ में हो। जब पाकिस्तान में जम्हूरियत बहाल हुई तो ज़रदारी ने चुनकर गिलानी को पीएम बनाया था, इस उम्मीद से कि वो जैसा चाहेंगे, वैसी सरकार गिलानी चलाएंगे। उसके बाद शरीफ़ ने बग़ावत की औऱ ज़रदारी को मौक़ा दे दिया राष्ट्रपति बनने का। उनका इक़बाल बुलंद था और फौज की इमेज पब्लिक की नज़र में ख़राब थी। सो वो अपनी माफ़िक चालें चलते गए। राष्ट्रपति बनने से पहले ज़रदारी साहब को जो चाहिए था वो गिलानी से कहते थे और वैसा होता था। पर राष्ट्रपति बनने के बाद वो अपनी इमेज कुछ और चमकाना चाहते थे। गिलानी को पूरी तरह से ज़रख़रीद गुलाम बनाकर रखना चाहते थे। फौज पर नियंत्रण भी उनके एजेंडे में था। आईएसआई को सिविलयन कंट्रोल में लाने की कोशिश की तो फौज ने पलटवार किया। ज़रदारी कैंप को मुंह की खानी पड़ी। फिर मुंबई हमले के बाद ज़रदारी ने भारत को भरोसा दे दिया कि वो आईएसआई चीफ को जांच में सहयोग के लिए दिल्ली भेजेंगे। फौज ने फिर विरोध किया। ज़रदारी को अपने शब्द वापस निगलने पड़े।
कुल मिलाकर लग ये रहा है कि बमुश्किल सत्ता में आए पाकिस्तान के सियासी लीडर आपस में कुत्ते बिल्लियों की तरह लड़ रहे हैं ये जताने के लिए राज मेरा है, तेरा नहीं।
पर पाकिस्तान के तवारीख़ पर नज़र डालें तो उनके लिए सबक है कि लड़ें नहीं एक जुट हों, वरना फ़ायदा तीसरे यानी फौज का हो जाएगा.
शुरुआत देश के पहले राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्ज़ा के क़िस्से से। मिर्ज़ा साहिब, पाकिस्तान के आख़िरी गवर्नर जनरल थे और पहले राष्ट्रपति। वाक़िया 1956 का है। जैसा कि हमने किया था। सन 1950 में अपना संविधान बना डाला था और गवर्नर जनरल का पद ख़त्म हो गया था। साथ ही बर्तानवी महारानी का औपचारिक राज भी। पाकिस्तान को अपना संविधान रचने औऱ अपनी हुकूमत ख़ुदमुख़्तार बनाने में 6 बरस औऱ लग गए थे। 23 मार्च 1956 को पाकिस्तान में पहले आईन के तहत इस्कंदर मिर्ज़ा ने सदर का काम संभाला। कुछ ही महीने बीते थे कि पाकिस्तान के राजनेता आपस में लड़ने झगड़ने लगे. वैसे सियासत में तो ये सब होता ही रहता है। पर मिर्ज़ा साहब को इसकी जड़ नज़र आई देश के संविधान में। उनको लगा कि सारा झगड़ा इस मरदूद संविधान का है। सो उन्होंने पाकिस्तान के पहले आईन को सस्पेंड कर दिया। उस वक़्त की सिविलियन सरकार को बर्ख़ास्त कर दिया और जनरल अयूब ख़ां को बना दिया मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेटर। कुछ लोग ये कहते हैं कि इस्कंदर मिर्ज़ा को देश की नहीं अपने राष्ट्रपति बने रहने की फिक्र थी। वो सिर्फ़ अपना कार्यकाल लंबा करना चाहते थे। बाक़ी सियासतदानों से ख़तरा न हो इसलिए फौजी अयूब के हाथ में कमान सौंप दी। पर हाय री क़िस्मत! अयूब ख़ां ने दो महीने के भीतर इस्कंदर मिर्ज़ा को ऐवाने सदर यानी राष्ट्रपति भवन से बाहर का रास्ता दिखा दिया औऱ ख़ुद जाकर वहां जम गए। बेहाल इस्कंदर मिर्ज़ा को भागकर दूसरे देश में शरण लेनी पड़ी। जब वो 1969 में मरे तो उस वक़्त के फौजी शासक याहिया ख़ान ने उनकी क़ब्र के लिए दो गज ज़मीन भी नहीं दी और ईरान के शाह रज़ा पहलवी ने इस्कंदर मिर्ज़ा का कफ़न दफ़न कराया, तेहरान में। अयूब साहब ने 1958 से लेकर 1968 तक राज किया और विरोध के चलते गद्दी छोड़ी भी तो सौंप दिया यहिया ख़ान के हाथों।
फौज के प्रति पाकिस्तानी अवाम में ग़ुस्सा था। इसका फ़ायदा उठाया ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने। याहिया के सिर पर सवार हो गए। अपने हिसाब से राज चलवाने लगे। 1970 में जब याहिया ने चुनाव कराए तो तब के पूर्वी पाकिस्तान में शेख मुजीब ने जीत का परचम फहराय़ा। भुट्टो ने मुजीब के साथ सत्ता में साझीदारी से इंकार कर दिया. मुजीब को नज़रबंद कराके पूर्वी पाकिस्तान में क़त्लेआम शुरू करा दिया। आपस की लड़ाई में मुल्क़े पाकिस्तान तक़सीम हो गया। भारत से जंग हुई 1971 में और शर्मनाक शिकस्त मिली। जनरल यहिया गए। भुट्टो का राज आय़ा। भुट्टो ने अपने राजकाज के लिए नया संविधान रचवा डाला 1973 में। भुट्टो थे तो राजनेता, पर राज चलाना किसी तानाशाह की तरह चाहते थे। विरोध बर्दाश्त ही न था। चाहिए थे सिर्फ़ जी हज़ूरी करने वाले। उन्होंने बहुतेरे सीनियर जनरलों को दरकिनार करते हुए चुप चाप रहने वाले जिया उल हक़ को बना दिया सेनाध्यक्ष। पार्टी में विरोध हुआ। फौज में विरोध हुआ. पर भुट्टो जिया को ही सेनाध्यक्ष बनाकर माने. 1977 में चुनाव हुए तो भुट्टो की पार्टी पर लगा हेरा फेरी का आरोप। भुट्टो ने तमाम विरोधियों को सलाखों के पीछे डाल दिया। अवाम भड़क उठा। जगह जगह बलवे होने लगे. सियासतदां आपस में लड़े जा रहे थे। मौक़ा मुफ़ीद देख भुट्टो के चुने हुए जिया उल हक़ ने उन्हीं का तख़्ता पलट किया और ख़ुद बन गए मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेटर। तमाम विरोध के बावजूद जिया ने भुट्टो को फांसी पर लटकाकर ही दम लिया.
जिया उल हक़ ने राजनेताओं पर सख़्ती की और नेताओं की अपनी ही नस्ल उपजाई। इसका एक उदाहरण नवाज़ शरीफ़ साहब हैं. जिया के ही पाले पोसे। 1988 में रहस्यमय विमान दुर्घटना में जिया उल हक़ मारे गए. पाकिस्तान में सिविलियन रूल फिर लौटा। ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की डॉटर ऑफ द ईस्ट, बेनज़ीर पीएम बनीं। बेनज़ीर के राज में भ्रष्टाचार अपने उरूज पर थाय, राजनेताओं की आपसी लड़ाई भी। पूरे दस साल यानी 1999 तक बेनज़ीर और नवाज़ शरीफ़ के बीच गद्दी की अदला-बदली होती रही। दो बार बेनज़ीर की सरकार बर्ख़ास्त हुई और दो बार शरीफ़ साहब की। लेकिन ये दोनों ही एकजुट होकर सदर की सरकार बर्ख़ास्त करने की ताक़त छीनने की कोशिश कभी न कर सके। लड़ते ही रहे। शरीफ ने जब 1998 में सत्ता संभाली तो उनका इरादा ज़ुल्फिकार भुट्टो जैसा था। विरोधियों का सफाया और ख़ुद को देश का इकलौता नेता बनाना। बेनज़ीर को विदेश भागना पड़ा। उनके पति ज़रदारी जेल में ठूंस दिए गए। शरीफ ने रास्ता साफ़ देख चाल चली। ख़ुद को मोमिन उल मुल्क़ घोषित करवाने में लग गए। ऐसा होता तो वो देश मे सर्वे सर्वा बन जाते, संविधान, सुप्रीम कोर्ट औऱ मुल्लाओं से भी ऊपर। पर मुशर्रफ़ ने बीच में ही उनकी नैया डुबो दी. दिलचस्प बात ये कि मुशर्रफ़ को भी सेनाध्यक्ष शरीफ़ ने ही बनाया था अपनी सहूलियत के लिए. मुशर्रफ़ ने बमुश्किल राज छोड़ा है। अब ज़रदारी और गिलानी फिर लड़ने में लगे हैं। सत्ता की मलाई बांटने के फेर में। शरीफ से तो पहले ही अलगाव हो चुका है।
पर मेरी तो यही सलाह है ज़रदारी औऱ गिलानी को भी औऱ नवाज़ शरीफ़ साहब को भी कि अपने देश की तारीख़ पर भी नज़र डाल लें और संभल जाएं वरना...
'औरत' शालिनी की नज़र से...
सदियों की त्रासदी, युगों की घुटन
सालों-साल की छटपटाहट
और पीढ़ियों से दर्द के सलीब पर
टंगा हुआ एक शब्द है-औरत
जो अपने अस्तित्व को मारकर
हर रिश्ते को जीती रहती है
बिना किसी शिकवे-शिकायत के
सारे अत्याचार सहा करती है
जो अपने सपनों को तजकर
हंसती आंखों से आंसू पिया करती है
चुपचाप, नि:शब्द, मौन
ख़ामोशी से यूं ही जिया करती है
घर की दीवारों पर,
रेतीले किनारों पर
सूनी-पनीली आंखों से,
जाने क्या खोजती है
शायद अपना व्यक्तित्व,
शायद अपनी पहचान...
तब वो मां, पत्नी, बहन,बेटी या प्रेयसी
से हटकर
कोशिश करती है ढूंढने की
अपने आपको
और जब कभी वो ढूंढ लेती है
अपना व्यक्तित्व, अपनी पहचान
बना लेती है
अपना कोई मकाम
इस पुरुष प्रधान समाज में
तो उसके अपने ही
प्रत्यंचा लेते हैं तान
चलाते हैं,
तीखे बचनों के कटु बान
जिससे
छलनी हो जाता है उसका हृदय
आंखों से सारे सपने जाते हैं बह
इस पर भी वो चुपचाप ही
सहती जाती है सबकुछ
देखती जाती है सबकुछ
टूटते हुए सपनों को
छूटते हुए अपनों को
पर एक दिन...
जब उसकी सहनशीलता
सीमा तोड़कर...
उतरती है बोलने को
तो बदल जाता है उसका रूप
हर ज़ुल्म सहने वाली
चुप ही रहने वाली
निरीह अबला...
चंडी बन जाती है
जीवन दायिनी का रूप छोड़
विनाशिनी बन जाती है
क्या ये उचित है
बिल्कुल भी नहीं
हमें तो बस कहना है यही
कि औऱत को मुकम्मल रूप मिले
उसके रूप, अस्मिता को
उसके महत्व को,
सम्मान मिले
उसे उसका व्यक्तित्व
उसकी पहचान मिले
जीवन देने वाली वो औरत
इतनी बदनसीब न रहे कि
उसे अपने ही जायों से
अपना हक़ और पहचान मांगनी पड़े।
note--शायद ये लाइनें आशुकवि बनने की शुरुआत थीं।
सालों-साल की छटपटाहट
और पीढ़ियों से दर्द के सलीब पर
टंगा हुआ एक शब्द है-औरत
जो अपने अस्तित्व को मारकर
हर रिश्ते को जीती रहती है
बिना किसी शिकवे-शिकायत के
सारे अत्याचार सहा करती है
जो अपने सपनों को तजकर
हंसती आंखों से आंसू पिया करती है
चुपचाप, नि:शब्द, मौन
ख़ामोशी से यूं ही जिया करती है
घर की दीवारों पर,
रेतीले किनारों पर
सूनी-पनीली आंखों से,
जाने क्या खोजती है
शायद अपना व्यक्तित्व,
शायद अपनी पहचान...
तब वो मां, पत्नी, बहन,बेटी या प्रेयसी
से हटकर
कोशिश करती है ढूंढने की
अपने आपको
और जब कभी वो ढूंढ लेती है
अपना व्यक्तित्व, अपनी पहचान
बना लेती है
अपना कोई मकाम
इस पुरुष प्रधान समाज में
तो उसके अपने ही
प्रत्यंचा लेते हैं तान
चलाते हैं,
तीखे बचनों के कटु बान
जिससे
छलनी हो जाता है उसका हृदय
आंखों से सारे सपने जाते हैं बह
इस पर भी वो चुपचाप ही
सहती जाती है सबकुछ
देखती जाती है सबकुछ
टूटते हुए सपनों को
छूटते हुए अपनों को
पर एक दिन...
जब उसकी सहनशीलता
सीमा तोड़कर...
उतरती है बोलने को
तो बदल जाता है उसका रूप
हर ज़ुल्म सहने वाली
चुप ही रहने वाली
निरीह अबला...
चंडी बन जाती है
जीवन दायिनी का रूप छोड़
विनाशिनी बन जाती है
क्या ये उचित है
बिल्कुल भी नहीं
हमें तो बस कहना है यही
कि औऱत को मुकम्मल रूप मिले
उसके रूप, अस्मिता को
उसके महत्व को,
सम्मान मिले
उसे उसका व्यक्तित्व
उसकी पहचान मिले
जीवन देने वाली वो औरत
इतनी बदनसीब न रहे कि
उसे अपने ही जायों से
अपना हक़ और पहचान मांगनी पड़े।
note--शायद ये लाइनें आशुकवि बनने की शुरुआत थीं।
शालिनी की कही अनकही......
काफ़ी दिनों से जो बात सोच रखी थी सोच रहा हूं कि आज से उसकी शुरुआत कर दूं। शालिनी की लेखनी से मैं हमेशा प्रभावित रहा हूं। लेकिन उसकी ज़िद के चलते मैं अब तक उसकी लेखनी का फ़न औरों के सामने नहीं पेश कर सका। शुरुआत आज से, और कोशिश रहेगी कि ये सिलसिला चलता रहे।
बिस्मिल्लाह कीजिए...
हम मिलेंगे...
फिर कभी
जुदा हो रहे हैं जो इस मोड़ पर
अपने-अपने ग़म लेकर
अपनी अपनी ख़ुशी के साथ
एक ख़लिश जो पैदा होगी
हमारे न मिलने से
उससे महसूस करेंगी,
ये हवाएं...
एक सुगबुगाहट पैदा होगी
उनमे हमारे आने से
जो ये समझते हैं
कि हम नहीं मिलेंगे
फिर कभी
हमारे साथ होने
न होने के बीच
जो अंतराल होगा
उस अंतराल में भी
हम होंगे साथ-साथ ही...
शुरुआत चाहे ख़ास न हो पर आगे बढ़ने का सिलसिला जो अब शुरू हुआ है तो जारी रहेगा...इस उम्मीद के साथ कि अभी नहीं तो आगे चलकर सही चीजें बेहतर होंगी...यक़ीं न हो तो नीचे लिखी पंक्तियों पर ग़ौर कीजिए....
हम व्यर्थ तो नहीं हैं
और हों भी क्यों
हम सीखते हैं, सोचते हैं
देखते हैं, समझते हैं
कुछ है जो
हमें बताता है
हमारा होना...
बिखरा है हमारे आस-पास
हमारा वजूद है
हम घूमते रहते हैं
चारों ओर
शहर की भीड़ में
जंगल के वीराने में
तपती रेत और
समंदर की गहराई में
ढूंढते रहते हैं वजूद
कोई क्यूं बताएगा
कि हम क्यूं हैं...
हमें तो ख़ुद ही ढूंढना है
अपना होना
हम बस यही सोचें
हम व्यर्थ तो नहीं हैं
और हों भी क्यों...
बिस्मिल्लाह कीजिए...
हम मिलेंगे...
फिर कभी
जुदा हो रहे हैं जो इस मोड़ पर
अपने-अपने ग़म लेकर
अपनी अपनी ख़ुशी के साथ
एक ख़लिश जो पैदा होगी
हमारे न मिलने से
उससे महसूस करेंगी,
ये हवाएं...
एक सुगबुगाहट पैदा होगी
उनमे हमारे आने से
जो ये समझते हैं
कि हम नहीं मिलेंगे
फिर कभी
हमारे साथ होने
न होने के बीच
जो अंतराल होगा
उस अंतराल में भी
हम होंगे साथ-साथ ही...
शुरुआत चाहे ख़ास न हो पर आगे बढ़ने का सिलसिला जो अब शुरू हुआ है तो जारी रहेगा...इस उम्मीद के साथ कि अभी नहीं तो आगे चलकर सही चीजें बेहतर होंगी...यक़ीं न हो तो नीचे लिखी पंक्तियों पर ग़ौर कीजिए....
हम व्यर्थ तो नहीं हैं
और हों भी क्यों
हम सीखते हैं, सोचते हैं
देखते हैं, समझते हैं
कुछ है जो
हमें बताता है
हमारा होना...
बिखरा है हमारे आस-पास
हमारा वजूद है
हम घूमते रहते हैं
चारों ओर
शहर की भीड़ में
जंगल के वीराने में
तपती रेत और
समंदर की गहराई में
ढूंढते रहते हैं वजूद
कोई क्यूं बताएगा
कि हम क्यूं हैं...
हमें तो ख़ुद ही ढूंढना है
अपना होना
हम बस यही सोचें
हम व्यर्थ तो नहीं हैं
और हों भी क्यों...
शनिवार, 3 जनवरी 2009
पुलिसवाला क्या करता है...?
"मैं फोर्स का आदमी हूं।", " क्या फोर्स का आदमी साधू साहब, अभी तक वो आपको ऐसे खदेड़ रहे थे जैसे मुंसीपालिटी वाले किसी आवारा कुत्ते को, क्या मिला आपको फोर्स से "। फिल्म अब तक 56 के एंटी हीरो के ये डायलॉग किसी भी संवेदनशील आदमी को झकझोर देने के लिए काफ़ी हैं। कम से कम मुझे तो ऐसा ही लगता है। पता नहीं क्यूं मुझे ये फिल्म बेहद पसंद है। बार-बार देखने को जी करता है। कभी मन भरता ही नहीं। अंत मालूम है पर फिल्म आती दिखे टीवी पर तो ख़ुद को रोक नहीं पाता। मानो दिल से लगा बैठा हूं, फिल्म के हर किरदार, सीन औऱ डायलॉग को। साल 2009 के पहले दिन यूं ही बैठे बैठे फिर से ये फिल्म देख डाली। शुरुआत में सोचा था कि सूचक के जेसीपी बनाए जाने तक के हिस्से को ही देखूंगा, आगे नहीं। नींद से पलकें बोझिल थीं, नाइट शिफ्ट की थकान दिलो-दिमाग पर तारी, पर फिल्म को जब देखने बैठा तो मुंबई क्राइम ब्रांच के इंस्पेक्टर साधू अगाशे के किरदार को फिल्म के अंजाम तक पहुंचते देखने से ख़ुद को रोक न सका।
26/11 के मुंबई हमले के दौरान क़रीब 19 पुलिसवालों ने अपनी जान गंवाई। इनमें आईएएस हेमंत करकरे भी थे औऱ हेड कॉन्स्टेबल तुकाराम ओंबले भी। कइयों से तो सिर्फ़ इसलिए तार्रुफ़ हो सका कि मैं मीडिया में काम करता हूं। बार बार सोचा क्या मिला होगा इस तुकाराम को जान लड़ा के। करकरे साहब चाहते तो आतंकी हमले की ख़बर मिलने के बाद पुलिस कंट्रोल रूम से मातहतों को निर्देश देते रहते। वो विजय सालस्कर औऱ अशोक काम्टे के साथ फील्ड में क्यों उतरे। ये सब विचार फिल्म देखते देखते आते जाते रहे। फिर हेमंत करकरे को लेकर अब्दुल रहमान अंतुले का उठाया विवाद भी याद आया। सोचते सोचते फिल्मी दुनिया के शानदार इंस्पेक्टर साधू अगाशे से मैं मज़लूम एएसआई तुकाराम ओंबले पर किस तरह केंद्रित हो गया पता न चला। औऱ ये भी सोचा कि मेरी पुलिसवालों के बारे में पहले क्या राय रही थी। हमेशा किसी चौराहे पर बेज़ार से खड़े, या अपने ऑफिस के पास स्थित पुलिस केबिन में नाइट शिफ्ट के वक़्त उगाही करते पुलिसवाले को देखकर यही ख़याल आता, क्या करते हैं ये पुलिसवाले। क्यों आम लोगों को परेशान करते रहते हैं वो। पर जब फिल्म के आख़िरी कुछ लम्हों में ऊपर लिखे डायलॉग चले तो मैं मजबूर हो गया असल ज़िंदगी और फिल्मी किरदारों के घालमेल में।
फिर ख़याल आया यूपी के औरैया ज़िले के थाना दिबियापुर के उस इंचार्ज़ का जिसे हाल ही में सत्ताधारी बीएसपी विधायक शेखर तिवारी की करनी का फल अपनी नौकरी गंवाकर भुगतना पड़ा। मैं सोचने लगा विधायक शेखर और उसके गुर्गों ने इंजीनियर मनोज गुप्ता को जी भरकर मारा, फिर उसे पटक गए दिबियापुर थाने में। सत्ताधारी दल के विधायक थे, हनक में थे। बेचारे थाना इंचार्ज की क्या औकात कि विधायक जी को ऐसा करने से रोकता। उन्हीं के रहमो-करम पर थाने में टिका था। विरोध करता तो एक औऱ तबादला या फिर लाइन हाज़िर होने की बेइज़्ज़ती बर्दाश्त करनी पड़ती। विधायक जी की हनक में बाधा बनता तो बहन मायावती जी या फिर उनके पुलिसिया गुर्गे बृजलाल उसको क़तई बर्दाश्त न करते। अब मर गए मनोज गुप्ता औऱ इसका सितम उनके परिजनों के साथ साथ टूटा दिबियापुर के थाना इंचार्ज पर भी। मनोज के परिजनों को सरकारी इमदाद का ऐलान हो गया है। बेटे को सरकारी नौकरी भी मिलेगी। अपने अमर सिंह जी भी दस लाख का चेक भेंट कर आए हैं। और वो बेचारा दिबियापुर का थाना इंचार्ज, बेग़ैरत बेनौकरी हुआ। कोई माई-बाप अब नहीं उसका। पहले थे, शेखर तिवारी जी, जो अब ख़ुद ही जेल में पड़े हैं, मायावती की सियासत का मोहरा बनकर। हां, अपनी करनी का फल तो वो भोग ही रहे हैं। वो दो गनर भी नौकरी से गए जो शेखर की हिफाज़त के लिए लगाए गए थे। ईमानदारी से सोचिए, जिस वक़्त शेखर तिवारी औऱ उसके गुर्गे मनोज गुप्ता को बेरहमी से मार रहे थे, उस वक़्त उन गनर्स में क्या इतनी हिम्मत थी कि वो उन्हें रोक पाते। तीस्ता सीतलवाड जैसी स्वघोषित जनसेवी तर्क दे सकती हैं कि गनर्स कम से कम अपने अफसरान को तो इत्तला कर सकते थे। पर इस सिनेरियो पर भी ग़ौर करें कि गनर्स रात साढ़े तीन बजे औऱैया के एसपी साहब को फोन करते कि जिन विधायक जी की सुरक्षा में आपने हमें लगाया है कप्तान साहब, वो किसी की जान के प्यासे बन बैठे हैं। इमेजिन करिए, क्या जवाब होता एसपी साहब का। यही कि चुप मारे रहो। माया मेमसाब के ख़ासुलख़ास हैं, विधायक जी। हो सके तो मदद ही कर दो ज़ुल्म ढाने में। बर्दाश्त न हो तो नज़रें फेर लो, पर मुंह हरगिज न खोलना।
संजीदगी से सोचिए, फिल्म अब तक 56 के एंटी हीरो का डायलॉग बड़ा ही प्रासंगिक लगेगा। वही फोर्स, वही अफसर जिन्होंने गनर्स को विधायक जी की हिफ़ाज़त में लगाया था, वो थाना इंचार्ज जो विधायक जी की सिफारिश पर ही एसपी साहब ने भेजा था, वो शिकार हो गए शेखर तिवारी की करतूत का। जिस फोर्स के अफसरान की करतूतों पर पर्दा डाल रहे थे बेचारे, वो ही उनकी नौकरी खा गए। क्या मिला फोर्स से उन्हें।
हेमंत करकरे साहब के बारे में सोचिए। जब वो मालेगांव धमाकों की तफ़्तीश कर रहे थे। अपने सियासी मालिकान के हुक्म पर रोज़ ब रोज़ तफ़्तीश का बुलेटिन मीडिया के सामने पढ़ रहे थे। शायद वो अब्दुल रहमान अंतुले रहे हों या फिर वो दिग्विजय सिंह जिन्होंने अंतुले के बयान का समर्थन किया और उनकी शहादत पर सवाल उठाए। लेकिन मालेगांव धमाकों की तफ़्तीश के बारे में रोज़ मीडिया से रूबरू होकर वो केस मजबूत नहीं कर रहे थे। वो तो कांग्रेस का एजेंडा पुख़्ता कर रहे थे। बीजेपी की आतंकवाद विरोधी मुहिम को कठघरे में खड़ा कर रहे थे। ये साबित करने की कोशिश कर रहे थे कि आतंकवादी सिर्फ़ मुसलमान नहीं होते, वो हिंदू भी हो सकते हैं, कम से कम भारत में तो ज़रूर ही। और ये हिंदू आतंकवाद सिर्फ़ आमजन तक सीमित नहीं, फौज में भी घुस गया है। ये हेमंत करकरे का तो एजेंडा रहा न होगा। पर ज़िंदा हाथी लाख का, मर गया तो किस काम का। सो करकरे साहब मरने के बाद किस काम के। यहां भी हम आप ग़लत ही हैं। राजनीति करने वाले खली में से भी तेल निकालते हैं। सो करकरे की मौत के बाद, उनकी लाश की आख़िरी बूंद सूख जाने के बाद भी उन्हें प्रासंगिक बना बैठे,अपने लिए। सियासत के बैलेंसिंग एक्ट के लिए। हिंदू बनाम मुसलमान की सियासत के लिए।
फोर्स के ये आदमी, तुकाराम ओंबले, विजय सालस्कर, अशोक काम्टे, हेमंत करकरे, विधायक शेखर तिवारी के दो गनर, दिबियापुर के थाना इंचार्ज। सब हुक्मरानों का हुक्म बजा रहे थे। और क्या मिला...तुकाराम या हेमंत करकरे की शहादत अमर नहीं हुई, अंतुले ने उस पर भी सवाल उठाकर उनकी शहादत को भी गंदा कर दिया, मानो किसी ने बदबूदार मल सार्वजनिक स्थान पर फेंक दिया।
लौटता हूं फिल्म अब तक 56 पर। फिल्म का मुख्य किरदार साधू अगाशे अपने मातहत जतिन शुक्ला से कहता है कि सूचक साहब ने कहा तो मैंने मार दिया। मेरा काम सवाल उठाना नहीं। हम तो रंडियां हैं, जैसा ग्राहक कहेगा वैसा करना ही होगा। इसका निस्तार नहीं। लेकिन यही किरदार फिल्म में एक जगह ये भी कहता है कि मैं अपना काम करता हूं, देशभक्ति के लिए नहीं और इस दौरान गोली लग जाए तो वो मेरी ग़लती, क्योंकि ड्यूटी के दौरान अपनी हिफ़ाज़त का ज़िम्मा मेरा ही है। वो सूचक साहब या फिर किसी सरकार का ठेका नहीं। कितने सहज अंदाज़ में वो पुलिसवाले का हाले दिल बयां करता है। शायद यही छोटे-छोटे मगर पैने डायलॉग मेरे इस फिल्म से लगाव की वजह हैं।
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