बुधवार, 12 नवंबर 2008

मेरे बाबू जी आए

बरसों का इंतज़ार पूरा हुआ। महीनों की ख्वाहिश पूरी हुई। दिनों की तमन्ना परवान चढ़ी और मेरे बाबा जी आख़िरकार दिल्ली आ ही गए। पिछले कई सालों से बाबूजी मेरे पास आने के लिए कह रहे थे। कोई न कोई मुश्किल आ जाती थी उनके आने में।

ओह...आगे बढ़ने से पहले आपको बता दूं कि मेरे बाबू जी यानी मेरे बाबाजी, या दादा जी हैं। मेरे पापा, चाचा लोग उन्हें बाबू जी कहते थे औऱ मैं भी कहने लगा। अपनी जेनरेशन में मैं सबसे बड़ा हूं। दादी जी मुझे बहुत चाहती थीं। पर दुर्भाग्य से उनकी कैंसर की वजह से 1980 में मृत्यु हो गई। ठीक से याद नहीं, पर शायद तभी से मेरे बाबू जी हर उस चीज़ को शिद्दत से चाहने लगे जो दादी जी को पसंद थी। शायद वो दादी से किए अपने बर्ताव का पश्चाताप करना चाह रहे थे।

ख़ैर, बाबू जी की ख्वाहिश थी कि वो अजमेर शरीफ़ और पुष्कर तीर्थ के दर्शन करें और इसीलिए वो दिल्ली आना चाहते थे। एक पंथ दो काज। दोस्त वैराग्य की मदद से उनका सपना पूरा हुआ और वो बज़रिए दिल्ली अजमेर और पुष्कर के दौरे पर गए। कुछ वक़्त हमारे साथ भी गुज़ारा। हम सबको अच्छा लगा। ज़िंदगी के कुछ दिन अच्छे मूड में कटे।