गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

गर आलू न होता तो!




चलिए आपका सामान्य ज्ञान परखा जाए। उपरोक्त दो तस्वीरों में क्या ताल्लुक है आप बता सकते हैं क्या?

नहीं!

आपके लिए सवाल को थोड़ा आसान बनाते हैं...पहली तस्वीर है अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी की जो 1961-63 के बीच अमेरिका के प्रेसीडेंट रहे। और....नीचे की तस्वीर तो आप आसानी से पहचान गए होंगे। फिर भी आपको बता दें कि ये आलू है। सर्वप्रिय सब्ज़ी आलू। वोही आलू, जिसकी आलू चाट बनती है, आलू पापड़ बनता है, आलू की टिक्की बनती है...वग़ैरा...वग़ैरा...

तो बताइए कि कैनेडी और आलू के बीच क्या संबंध है?

नहीं मालूम!

हमें भी कुछ दिनों पहले तक नहीं मालूम था। पर अब पता है तो आपको भी बता देते हैं। अगर दुनिया में आलू न होता, तो जॉन कैनेडी कभी अमेरिका के राष्ट्रपति न बन पाते।

चकरा गए न आप, इस जवाब से। हमको भी पता चला था तो हम भी चकरा गए थे। अब आपको तफ्सील से बताना होगा।

जॉन कैनेडी के पुरखे, इंग्लैंड के पड़ोसी देश आयरलैंड के रहने वाले थे। आयरलैंड में 19वीं सदी में मज़े में रहते थे। उनके पुरखे, आलू की खेती करते थे। आलू उगाते थे, आलू पकाते थे, आलू खाते थे। वैसे कैनेडी परिवार, आयरलैंड में ऐसा करने वाला इकलौता परिवार नहीं था। हज़ारों परिवार ऐसा ही करते थे। आलू के इर्द गिर्द उनकी ज़िंदगी घूमती थी।

पर अचानक क़यामत ने अपना पंजा इन खुशहाल परिवारों पर मारा। सन 1845 से लेकर 1848 तक, एक के बाद एक लगातार तीन साल आयरलैंड में आलू की फ़सल बर्बाद हो गई। आलू को बीमारी लग गई थी, वो बीमारी जिसका उस वक़्त नाम तक नहीं मालूम था। अब उसे लेट ब्लाइट के नाम से जानते हैं। तो, उस बीमारी का ऐसा क़हर बरपा कि आयरलैंड में अकाल पड़ गया। वहीं इंग्लैंड के ज़मींदार, इस तबाही के बावजूद आय़रलैंड के किसानों से लगान वसूलते रहे। आयरलैंड उस वक़्त आलू पर ऐसा निर्भर था कि बाक़ी कुछ करना ही मानो भूल चुका था। आलू की फसल की बर्बादी और अंग्रेज़ किसानों के चाबुक ने मिलकर ऐसी तबाही मचाई कि हज़ारों आयरिश लोग मर गए। कहते हैं कि आलू की फसल नष्ट होने से आयरलैंड पर ऐसी क़यामत आई थी, जिसमें आधे आयरिश मारे गए थे। जो बाक़ी बचे, वो जैसे तैसे नाव में भर भरकर अमेरिका को कूच कर गए। उस अमेरिका की ओर, जिसे ताज़ा ताज़ा अंग्रेज़ों से आज़ादी मिली थी, जिसे लैंड ऑफ प्रॉमिस कहा जाता था। आयरलैंड से अमेरिका कूच करने वालों में से एक कैनेडी परिवार भी था....और इसी परिवार का चश्मोचिराग़ जॉन फिट्जगेराल्ड कैनेडी, आगे चलकर अमेरिका का राष्ट्रपति बना।

तो, बताइये भला, अगर आलू न होता तो क्या कैनेडी बन पाते अमेरिका के राष्ट्रपति?

वैसे, आलू से जुड़े ऐसे बहुत से तथ्य हैं, जिनसे रूबरू होंगे, तो आप चौंक जााएंगे।


आज आलू की सब्ज़ी के बिना आप अपनी ज़िंदगी को अधूरी समझेंगे। बिना आलू की सब्ज़ी के कचौरी का महात्म्य ही नहीं पूरा होता। आलू टमाटर की सब्ज़ी, आलू गोभी की सब्ज़ी...बना लें, फिर..पूरी के साथ खाएं, कचौरी के साथ लुत्फ उठाएं...या रोटी के साथ ही....


मगर क्या आपको पता है कि आज से दो सौ साल पहले, हिंदुस्तान के लोगों को ये भी नहीं पता था कि दुनिया में आलू नाम की कोई चीज़ भी होती है।

वो समोसा, जिसके साथ आलू का जोड़ ही दुनिया का सबसे बड़ा गठजोड़ कहा जाता है, वो समोसा, आज से दो सौ साल पहले बग़ैर आलू के बनता था। आज कहते हैं कि जब तक है समोसे में आलू...मतलब लोग ये मानते हैं कि समोसे में आलू हमेशा से था और आगे भी हमेशा बना रहेगा, वो समोसा, भारत में मध्य एशिया से आया था, तुर्कों के साथ। लेकिन, उस समय समोसे को आलू नहीं, गोश्त का कीमा भरकर बनाया जाता था। और केवल मांसाहारी लोगों के लिए था। क्योंकि समोसा तो हिंदुस्तान में सैकड़ों साल पहले ही आ गया था...मगर आलू उसके कई सौ साल बाद आया और तब जाकर पड़ा समोसे में आलू, और तब जाकर समोसा, शाकाहारियों की प्लेट में पहुंच सका।


आज आलू पराठों के साथ ही एक उत्तर भारतीय का दिन शुरू होता था, पर डेढ़ सौ बरस पहले आलू पराठा था ही नहीं। क्योंकि जनाब आलू ही नहीं था इंडिया में तब तो!


आज, आलू टिक्की, आलू चाट, फिंगर चिप्स, आलू पापड़, आलू के चिप्स और न जाने क्या क्या...आलू के व्यंजन बनते हैं। यूं लगता है कि हम तो आदि काल से आलू का ऐसे ही लुत्फ़ उठाते आए हैं। लेकिन आलू की खेती तो उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में आरंभ हुई थी हिंदुस्तान में। उससे पहले भारत में बहुत से और व्यंजन भले बनते रहे हों, मगर आलू वाली वैराइटी न थी।



जब क़िस्सा ए आलू छिड़ ही गया है तो इसकी हिस्ट्री और मानवता के विकास और इतिहास में इसकी अहमियत भी आपको बताए देते हैं।

आलू, असल में अमेरिकी महाद्वीपों पर पाया जाने वाला जंगली पौधा था। अंदाज़े से बताते हैं कि दक्षिण अमेरिकी देश पेरू में रहने वाले रेड इंडियन आदिवासियों ने यही कोई आठ हज़ार साल पहले इसकी अहमियत जान ली थी और इसकी खेती शुरू कर दी थी। एंडीज़ पर्वतमाला की ढलानों पर इसकी खेती होती थी।

मग़र बाक़ी दुनिया को इसका पता पंद्रहवीं सदी में उस वक़्त चला, जब स्पेनिश अन्वेषक अमेरिका पहुंचे। वहां उन्होंने रेड इंडियन्स को इसे चाव से खाते देखा तो इसे अपने साथ यूरोप ले आए।

पहले पहल यूरोप के किसानों को न इसकी फसल अच्छी लगी और न ही इसका स्वाद। लेकिन इटली में सोलहवीं सदी में किसानों ने आलू बोना शुरू कर दिया। जब इटली में आलू की फसल को कामयाबी मिली, तो यूरोप के बाक़ी देशों के किसानों ने भी इसकी खेती शुरू कर दी और इसे अपने खाने का हिस्सा बना लिया।

कहते हैं कि यूरोप में 17वीं से उन्नीसवीं सदी में जनसंख्या विस्फोट हुआ था। मतलब आबादी बड़ी तेज़ी से बढ़ी थी। जैसा कि आज हिंदुस्तान में हो रहा है। यूरोप में इस जनसंख्या विस्फोट के पीछे आलू को वजह बताया जा रहा था। क्योंकि आलू की खेती आसान थी। इसकी लागत कम थी। इसको खाने के लिए तैयार करने में भी कम खर्च था। लिहाजा शुरुआती झिझक के बाद यूरोप ने इस फसल को दिल से लगा लिया। और इसका बड़े पैमाने पर उत्पादन होने लगा। ठंड से बेहाल यूरोप को आलू ने हौसला दिया था और खाने पीने की किल्लत दूर हुई, अकाल से मौतों की संख्या कम हुई तो आबादी भी तेज़ी से बढ़ी।

मगर, आलू की ज़्यादा वैराइटी विकसित नहीं हुई थी। इसका नुकसान उन्नीसवीं सदी के मध्य में देखने को मिला, जब आयरलैंड समेत पूरे यूरोप में आलू की फसल की भारी बर्बादी हुई और इसके चलते आए अकाल से लाखों लोग मारे गए।

बहरहाल, यूरोप आया आलू, तो वहां से उपनिवेश बनाने निकले लोग इसे दुनिया के दूसरे देशों में भी ले गए। कहते हैं कि अठारवहीं सदी में आलू चीन और पूर्वी एशिया के दूसरे देशों में पहुंच चुका था, जहां इसका ज़ोरदार स्वागत किया गया था।

भारत में आलू, अंग्रेज़ लाए या फिर पुर्तगाली, इस बारे में मतभेद हैं। पर ये पक्के तौर पर कहा जा सकता है, कि उन्नीसवीं सदी की शुरुआत तक इसकी खेती के कोई प्रामाणिक दस्तावेज़ नहीं मिलते।

चूंकि आलू पहाड़ी ढलानों पर उगाया जाता था, जैसा कि पेरू के आदिवासी करते थे...तो पहले पहल सन 1830 में आलू की खेती देहरादून के पास किए जाने की बात बताई जाती है। वैसे कुछ लोग ये कहते हैं कि सबसे पहले गुजरात के सूरत में आलू की खेती की गई थी। सूरत में हुई या देहरादून में, पर उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में आलू की खेती होने लगी थी दक्षिण एशिया में।

उसके बाद तो आलू ने हिंदुस्तानियों पर ऐसा जादू चलाया कि इसका राज पूरे भारतवर्ष पर हो गया।


आज आलू के पापड़ के बग़ैर होली नहीं मनती हमारे यहां....फिंगरचिप्स मिल जाएं तो आख़िरी टुकड़े तक ध्यान उसी पर रहता है। आलू का जादू हम पर ऐसा चला कि आज आलू बैंगन, आलू परवल, आलू गोभी, आलू टमाटर, यानी कमोबेश हर सब्ज़ी के साथ जुड़ गया है आलू। खाने वाले आलू गोश्त भी बना डालते हैं। आलू का दम तो दमदार लगता ही है।


फिर अंग्रेज़ चले गए, पर उनका एजेंट आलू रह गया। हमारी ज़ुबान पर उसका जादू जो चल चुका था। आज भारत, दुनिया में आलू का दूसरा बड़ा उत्पादक है, चीन के बाद। चीन और भारत मिलकर दुनिया का एक तिहाई आलू उपजाते हैं। यूरोप और अमेरिका भी आलू के बड़े शैदाई हैं। उनके अपने व्यंजन हैं आलू के। आलू की पूरी दुुनिया में इस कामयाबी का राज़ है उसकी एक से एक वैराइटी। एक अंदाज़े से कहा जाता है कि दुनिया भर में आलू की यही कोई चार हज़ार किस्में उगाई जाती हैं।

भारत में हिमाचल प्रदेश में स्थित पोटैटो रिसर्च इंस्टीट्यूट के पास आलू की एक दो, दस बीस, दर्जन दो दर्जन, सौ दो सौ नहीं, 1200 से ज़्यादा किस्में हैं।


मक्का, गेहूं और चावल के बाद आज आलू, दुनिया में चौथी सबसे ज़्यादा उगाई जाने वाली फसल है। दुनिया में क़रीब 400 मिलियन टन आलू का उत्पादन होता है। मतलब 4 हज़ार लाख टन। इसमें से दो तिहाई आलू तो इंसान ख़ुद खा जाते हैं। बाक़ी का जानवरों को खिलाने में इस्तेमाल होता है।


अब आप हिसाब लगाने बैठिए कि आलू की कितनी डिश आप जानते हैं...आलू की सब्ज़ी, आलू का भुर्ता, आलू के चिप्स, आलू के पापड़, आलू की सब्ज़ी, आलू के फिंगर चिप्स, आलू का पराठा, आलू दम, गोभी आलू, बैंगन आलू, आलू टमाटर, आलू का पराठा, मसाला दोसा, समोसा....

गिनते रहिए.....

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