शुक्रवार, 20 मार्च 2015

बाबूजी चले गए

 

आप कैसे हैं?

'आई ऐम काउन्टिंग माई डेज़'।

मेरे सवाल के जवाब में यही कहा था उन्होंने। और वो काउन्टडाउन साल 2012 में 16-17 जून की दरम्यानी सियाह रात को कब पूरा कर लिया उन्होंने, पता ही नहीं चला। न पूछा, न बताया, न आगाह किया, न चेतावनी दी। आवाज़ उनकी बड़ी बुलंद थी। अक्सर मुझे रश्क़ होता था कि काश मैंने भी वैसी बुलंद आवाज़ पायी होती। लेकिन उस काली रात को न जाने उस आवाज़ की बुलंदी किस शून्य में गुम हो गई थी। और वो ख़ुद?  शायद वो भी शून्य में विलीन हो गए थे। एक नया काउन्टडाउन शुरू करने के लिए...और पीछे, हमारी ज़िंदगी में भी छोड़ गए थे ऐसा शून्य जो कभी नहीं भरा जा सकेगा।

लोगों ने कहा, "उन्होंने पूर्णायु पायी, सब सुख भोगा, उनके लिए बहुत अच्छा हुआ। उनके लिए बहुत अच्छा हुआ"
क्या वाक़ई?

महज़ 87 बरस छै महीने और 24 दिन तक चली बाबूजी के दिल की धड़कनों की गिनती...मेरे हिस्से में आए सिर्फ़ 37 बरस छै महीने और 25 दिन।  उनका सबसे बड़ा पोता हूं। सबसे बड़ा भाग मेरे ही हिस्से आया। फिर भी संतोष नहीं, आत्मा अतृप्त...उनसे और मांगने को जी करता है, थोड़ा सा ब्लैकमेल करके कुछ और हथियाने को। रूठने की ज़रूरत नहीं, सिर्फ़ एक बार कहने की देर थी। कह दो और भूल जाओ। पर उन्हें याद रहता था। फिर चाहे बरसों ही क्यों न बीत जाएं...किसी की भी डिमांड हो, याद रखते थे और अपनी क्षमता भर पूरी करने की कोशिश भी करते थे। क़िताबें, कपड़े, खाने-पीने की चीज़ें, ओढ़ना-बिछौना...औऱ न जाने कितनी अनगिनत चीज़ें। यक़ीन है कि अगर मैं कहता कि मेरा हिस्सा और बढ़ा दें, तो ज़रूर ऐसा करते...पर इतना दिया था उन्होंने कि मुझे लगता था कि कहने की ज़रूरत ही नहीं। और उन्होंने मेंरे हिस्से में 37 बरस 6 महीने और 25 दिन लगाए। हिसाब के बड़े पक्के थे। मन ही मन हिसाब लगाकर रखते थे। लल्लू का, महेन्दर का, पिंकू का, गीता का, राजू का, अन्ना का, सोमू का, गोलू का, प्रभात जी का, शम्मी का, छोटके लल्लू का, मास्टर साहब का, अभय का, अन्नू मियां का, दीपू का, श्रवण का, वैराग्य का, ईंदल का, गैताल का, परमानंद जी का, गनी भाई का, बचऊ भाई का, वक़ील साहब का, म्योहर वाले संतोष का, गोपुआ की महतारी का, अन्ना की मम्मी का...बड़ा सा कुनबा था उनका, यही कोई साठ-सत्तर लोगों का...आज मेरे घर में पांचवें के बाद कोई छठां आ जाए तो मन खीझ उठता है। पर मुझे याद नहीं पड़ता कि कभी वो किसी के आने पर...दुखी हुए थे, नाराज़ हुए थे।
जब से चौराहे वाले घर पर रहने आए थे, अक्सर राहगीर रात-बेरात वहां शरणागत बनते थे उनके। हम सब उदासीनता से मुंह फेरकर सो जाते थे। पर बाबूजी? कहां से आए हो जी? ओढ़ना-बिछौना है न? कुछ खाया-पिया है? फिर बड़े अनुभव से कहते थे-बिना खाए नींद नहीं आएगी। अगर बिरादरी का है तो घर से खाने का इंतज़ाम करते थे। जात से बाहर का होता था तो, आटा-चावल दिलवाते थे और उसे बार-बार प्रोत्साहित करते थे कि कुछ बना खाकर ही सोए। जब तक राहगीर ऐसा कर न ले उन्हें इत्मीनान नहीं होता था। उनकी चिंता देख हम अक्सर भड़क जाते थे कि क्यों इतने परेशान हो रहे हैं, सोने नहीं देते उसे। सुबह चले ही तो जाना है, जाने कौन है जिसके लिए फिक्रमंद हुए पड़े हैं। पर उन्हें तो मानो ख़ब्त था, सबको खिला-पिलाकर सुलाने का। तसल्ली ही नहीं होती थी उन्हें जब तक दरवाज़े पर आय़ा हर जीव खा पी न ले। जी हां, हर जीव, सिर्फ़ इंसान नहीं। जब चौराहे पर अकेले रहते थे, तो मैं घर से खाना लेकर आता था। पहला निवाला तोड़ने से पहले एक रोटी अलग रख देते थे थाली में...उस वक़्त तो ध्यान नहीं दिया..पर, आज याद करता हूं कि वो रोटी, वहां पड़े रहने वाले एक आवारा कुत्ते के लिए होती थी, उनका पेट भरे न भरे, कुत्ते के लिए रोटी वो पहले निकालते थे, अपने खाने में से।

मोबाइल की घड़ी में दर्ज वो वक़्त हमेशा के लिए ज़ेहन में चस्पां हो गया है। तड़के 4 बजकर पांच मिनट हुए थे। छोटे भाई पिंकू का फोन आया...प्रणाम...कहां हो? घर में कि ऑफिस में? मैंने कहा-ऑफिस में। उसके अगले वाक्य ने मुझ पर बिजली गिरा दी-बाबू खतम हो गए। मेरे मुंह से कोई शब्द नहीं फूटा तो उसने ख़ुद ही बताया-रात में पापा (यानी मेरे बड़े चाचा) उठे थे , दस्त हो रहे थे उन्हें, तभी पता चला कि बाबूजी नहीं रहे, चले गए हम सबको छोड़कर। सुबह चार बजे पिंकू का फोन करना सामान्य घटना नहीं थी, पर मन में कोई बुरा ख़याल नहीं आया था फोन उठाते वक़्त...ये तो बिल्कुल नहीं सोचा कि बाबूजी रात के अंधेरे का फ़ायदा उठाकर हमें छोड़ जाएंगे, किसी की मुश्किल का फ़ायदा उन्होंने उठाया हो, ऐसा तो याद नहीं पड़ता...

अभी कुछ देर पहले ही रात क़रीब दो ढाई बजे मैं और दोस्त सिद्धिनाथ, लेडी हार्डिंग अस्पताल की टीन में बैठकर उनका ज़िक्र कर रहे थे...इस्मत चुगताई की आत्मकथा पर मुबाहिसा करते करते बाबूजी की चर्चा चल पड़ी थी। सिद्धि को मैं बता रहा था कि मेरे बाबूजी का मेरे जीवन पर कैसा असर पड़ा था।

पिंकू का फोन आने के बाद जब मैंने सिद्धी को बताया तो उसने कहा शायद जब हम उनकी चर्चा कर रहे थे दिल्ली में, तो वो गांव में अपना शरीर त्याग रहे थे। पिंकू ने ख़बर करने के बाद फोन काट दिया।

मैंने तुरंत प्रणब जी (दफ़्तर में मेरे वरिष्ठ) को फोन लगाया और ऑफिस छोड़ दिया। रास्ते से ही पत्नी शालिनी को ख़बर दी, उसे भी यक़ीन नहीं हुआ। शायद हम सब इस इल्यूज़न में थे कि बाबूजी हमेशा रहेंगे हमारे साथ। आनन-फानन में स्टेशन पहुंचे, टिकट था नहीं, पर मिल गया, जुगाड़ हो गया था। ट्रेन में बैठने तक लगातार फोन आते रहे घर से, अंतिम संस्कार को लेकर मतभेद थे कुछ। समय काटे कट नहीं रहा था, जैसे तैसे आनंद विहार से गाड़ी छूटी तो मैं भी निकल पड़ा बाबू जी की यादों के सफ़र पर।

ज़ेहन में बाबूजी की पहली तस्वीर कौन सी है?  सवाल बड़ा कठिन है। पटना वाली, सीवान की, इलाहाबाद, या फिर गांव का कोई क़िस्सा। ट्रेन की रफ़्तार के साथ ही यादों की फिल्म भी सरपट भागने लगी। मग़र यादों के समंदर में इतनी लहरें हैं, ऐसी गहराई है कि उसे माप पाना, किसी पैमाने पर कसना बेहद मुश्किल।  ज़िंदगी का हर सफ़ा, हर हर्फ़ उनके साये में गुज़रा है। बहुत सी मीठी यादें हैं, कुछ खट्टे तज़ुर्बे भी, सिलसिलेवार कुछ भी लिख पाना बाबूजी के बारे में बहुत मुश्किल काम है।

क़रीब दो महीने पहले मैंने पत्नी शालिनी को कहा कि आख़िर वो बैंक जाकर अपना काम क्यों नहीं करती। चेक बुक ही ले आए या फिर वाउचर भरके पैसे निकाल ले। उसने जवाब दिया, "बैंक का काम आता ही नहीं, किसी ने कभी सिखाया ही नहीं" पहले तो मुझे लगा कि हमेशा की तरह बहानेबाज़ी कर रही है। फिर, सोच में पड़ गया कि हो सकता है सचमुच न आता हो। ज़ेहन में सवाल कौंधा कि मुझे किसने सिखाया? और फट से बाबूजी की तस्वीर सामने आ गई। हमेशा बैंक के हिसाब-क़िताब में लगे रहते थे। कभी फिक्स्ड डिपॉज़िट तो कभी सेविंग्स एकाउंट, कभी रिकरिंग खाता तो कभी लोन एकाउंट की बातें करते। यही कोई आठ-नौ बरस का रहा होउंगा जबसे वो मुझे अलोपीबाग़ में इलाहाबाद बैंक की ब्रांच ले जाने लगे थे। वहीं उनका पेंशन एकाउंट था। वहीं वाउचर भरके पैसे निकालते, तभी से वाउचर भरना सीखा था। फिर चौक जाते सामान लेने तो भी साथ ले जाते थे। वहीं लोकनाथ में उनका और बड़ी-छोटी बुआओं, चाचा-पापा का सेविंग्स और फिक्स्ड डिप़ॉजिट खाता था, इलाहाबाद बैंक में ही। एक हिलती डुलती इमारत के पहले माले पर था बैंक, मुझे अच्छी तरह याद हैं, वहां के लकड़ी के खंभे, घिसी हुई सीढ़ियां। मुझे बड़ा तकल्लुफ़ होता, वहां जाने में। पर उस उम्र में भी वो बड़े आराम से सीढ़ियां चढ़ते। आराम से जाकर किसी बाबू से वाउचर मांगते या फिर पासबुक अपडेट करने को कहते। कई बार इत्मीनान से पसीना पोंछते हुए कोई फॉर्म भर रहे होते और मैं उकताया हुआ यहां वहां भागकर दिल बहलाने की कोशिश करता। कई बार उन्हें बैंक मैनेजर से मिलने उसके कमरे में जाना होता तो अपना ट्रेडमार्क खादी का झोला मुझे थमा देते ये सहेजते हुए कि ध्यान से रखना, कुछ गिराना नहीं, कुछ गुमाना नहीं। ढेर सारी पासबुकें भरी होती थीं उस झोले में। कई मोटे काग़ज़ों वाले पन्ने भी होते थे, पॉलीथीन चढ़े। बाद में पता चला कि वो एफडी की रसीदें होती थीं रवींद्र कुमार मिश्र एवं अलख कुमार मिश्र, महेंद्र मिश्र एवं अलख कुमार मिश्र, गीता त्रिपाठी एवं अलख कुमार मिश्र के नामों से। सब-कुछ गड्डमगड्ड था, कुछ समझ नहीं आता था, ये हर काग़ज़ पर बाबूजी के साथ कभी पापा तो कभी बड़े चाचा, कभी बड़ी बुआ तो कभी छोटे चाचा का नाम क्यों लिखा होता था। मन को बहला लेता कि पापा लोगों के पिताजी हैं इसलिए उनके नाम के साथ पापा-चाचा का नाम लिखा है। आख़िर मेरे स्कूल की क़िताब में भी तो पापा का नाम लिखा था। इन जुड़वां नामों का रहस्य, उस खादी पोटली का राज़ तो बहुत बाद में समझ आया। चौक जाने पर मुझे बड़ी कोफ़्त होती। बहुत भीड़ रहती थी। सबसे ज़्यादा दिक़्क़त मुझे पेशाब के लिए होती थी। हर कोना, हर गली इंसानों से भरी, कहीं लघुशंका समाधान की जगह ही नहीं मिलती। पर बाबूजी मुझे हर दफ़ा, शायद महीने में दो बार, या तीन बार लोकनाथ की उस ब्रांच ज़रूर ले जाते। मेरे लिए वहां जाने के लुत्फ़ दो-तीन ही थे। मातादीन नाम की दुकान की ग़ज़क या फिर पेठे-रेवड़ी की। फिर पाठक जी के यहां ले जाते बाबू, बिस्किट, जैम, ब्रेड जैसी चीज़ें लेने। चौक में बाबू के कितने ठीहे थे। झा मार्केट में हकलहे दुकानदार के यहां से मसाले-मेवे लेने हैं, मिंयां के यहां से साबुन, सर्फ़, ब्लेड, फिनायल की गोली, वग़ैरा, मातादीन के यहां की गजक। गोपाल स्टोर्स के वहां से अंडरगारमेंट, होज़री और चादरें-गिलाफ। हरी संस के यहां से दम-आलू का मसाला, वहीं बग़ल में कोने की दुकान से मैदा। मीरगंज की ख़ास दुकान से मूंगफली चीनी। लोकनाथ में एक ख़ास सब्ज़ीवाले के यहां से अदरख-नींबू और इमली ख़रीदना, साथ में कभी कभार कैथा भी। लोकनाथ की सब्ज़ी मंडी मुझे बहुत लुभाती थी। चुन चुनकर दिलफ़रेब अंदाज़ में सजाई गई सब्ज़ियां मानों बोलती थीं, आओ हमें सारा का सारा ख़रीदके घर ले चलो। बाबूजी के साथ लोकनाथ जाते-जाते ही शायद मुझे ज़िंदगी में सब्ज़ियों से बेहद लगाव हो गया। तभी तो शालिनी कुछ शिक़ायत तो कुछ लाड़ जताने के अंदाज़ में अपने मायकेवालों और दोस्तो को बताती है कि, "इनका तो फेवरिट पिकनिक स्पॉट सब्ज़ी मंडी है। एक बार हो आए तो मन बहल जाता है"  ख़ैर लोकनाथ से इमली लेने के बाद बाबूजी चौक में मुहम्मद अली पार्क का रुख़ करते वहां एक दुकान फिक्स थी, डालडा लेने के लिए। पहले तो देसी घी और तेल ख़रीदने की ज़रूरत नहीं थी, सिर्फ़ डालडा था जो ख़रीदा जाता था। बैंक के काम और इतनी सारी शॉपिंग के बाद नंबर आता था कुछ पेट-पूजा का। चौक में उसकी जगह भी तय थी। मुहम्मद अली पार्क में जहां से डालडा लिया जाता उसी के ठीक पीछे, अंदर संकरी गली में एक दुकान थी, जहां बेहद छोटी जगह में एक बड़े कड़ाहे पर कभी समोसे तो कभी ब्रेड पकौड़े तले जाते रहते थे। बाबूजी का मेनू फिक्स था। पहले गर्मागर्म ग़ुलाबजामुन। फिर दम आलू के साथ ब्रेड पकौड़ा...और बस्स!!! गर्मी के दिन होते तो वापस लोकनाथ की गली में आकर लस्सी पीते अकेले, क्योंकि मैं तो दही खाता नहीं, उबकाई आती है। मुझे बचपन से समोसे बहुत प्रिय हैं। बाबूजी को भी थे। वो बिहारी अंदाज़ में समोसों को सिंघाड़ा कहते थे। हमेशा ख़ुद को बिहारी और हम लोगों को उल्टा प्रदेश का वासी बताते थे। मुहम्मद अली पार्क की उस संकरी सी दुकान में उनका समोसा प्रेम शायद कभी समा ही नहीं पाया। हमेशा ग़ुलाबजामुन और ब्रेड पकौड़ा-दम आलू खाया और खिलाया। बहुत ख़ुश हुए तो एक कप चाय भी पिला देते थे। उस दुकान पर पहुंचने का मतलब साफ़ था। अब ख़रीदारी ख़त्म, बैंक का काम ख़त्म, घर लौटने की बारी आ गई। ज़िंदगी की ज़रूरियातों के हर सामान की दुकान फिक्स थी। बाबूजी ने शायद ये ढब अपने बाबा से सीखा था। जिनके बारे में बताते हैं कि बिहार में पांच रुपए महीने की नौकरी में वो घोड़ा पालते थे और नौकर भी रखते थे, दो-दो। उनका तंबाकू लखनऊ से आता था, एक दुकान फिक्स्ड थी।
पूरे इलाहाबाद में न जाने कितनी ब्राचों में बाबूजी ने खाते खोले हुए थे। कचेहरी के पास को-ऑपरेटिव बैक की ब्रांच, वहीं कटरा सब्ज़ी मंडी के पास इलाहाबाद बैंक की शाखा, सिविल लाइंस में सेंट्रल बैक की ब्रांच, अलोपीबाग़ में इलाहाबाद बैंक की ब्रांच, पॉलीटेक्निक के पास स्टेट बैंक की ब्रांच। मुझे साइिकल-रिक्शे में साथ बिठाकर अक्सर साथ ले जाते थे। पहले तो ये ब्रांचों और खातों का जाल समझ में नहीं आया। उस वक़्त वो इलाहाबाद में रहते थे, साल के छै महीने, बाक़ी के दिन बिहार प्रवास होता था। जब इलाहाबाद आते तो ब्रांच-ब्रांच घूमते, मुझे साथ लिए फिरते। मुझे उनके साथ वक़्त बिताना हमेशा अच्छा लगता था। पर, बार-बार अगर बैंक ही जाना पड़े तो किसे कोफ़्त न होगी। मैंने सुझाव दिया, 'ये अलग अलग बैंकों में इतने खाते क्यों रखे हैं बाबू, इकट्ठा करके कहीं एक जगह खोल लीजिए एकाउंट।' वो हंसकर टाल गए। बहुत बाद में जब वो गांव रहने लगे और मुझमें बैंकों, खातों और उनके पास पैसों की किंवदंतियां सुनकर समझ पैदा हुई, बिहार में भी उनके सेंट्रल बैंक, इलाहाबाद बैंक और स्टेट बैंक के खातों की ख़बर लगी तो समझ में आया। उन्होंने इतने खाते अलग अलग बैंकों में क्यों खोल रखे हैं। बिहार में जितने बैंकों में उनके अकाउंट थे उतने ही बैंकों में यहां भी एकाउंट खोल रखे थे उन्होंने, ताकि जब ज़ईफ़ी बढ़े, कमज़ोरी कब्ज़ा करे और बिहार जाना कम हो तो वहां के पैसे आराम से यहां के एकाउंट में ट्रांसफर करा लें। उनकी इस दूरंदेशी का खुलासा बहुत बाद में, पच्चीस की उम्र पार करने के बाद जाकर हुआ। इन बैंकीय दौरों में ही मुझे वाउचर भरने, एकाउंट खोलने, खाता अपडेट कराने, चेक से पैसे निकालने जैसे कामों की समझ आई। उनके साथ आते-जाते ये कब सीख गया कभी एहसास न हुआ। आज लोग यूलिप की बातें करते हैं, म्यूचुअल फंड्स के बारे में हल्ला-हंगामा करते हैं। पर घर में, मेरे इर्द गिर्द के लोगों में बाबूजी पायनियर थे, इन्वेस्टमेंट के इन नए तरीक़ों से तार्रुफ़ कराने में। शायद अस्सी के दशक का आख़िर था या नब्बे की शुरुआत, जब उन्होंने स्टेट बैंक मैग्नम म्यूचुअल फंड का फॉर्म मुझसे भरवाया था। अक्षर बड़े महीन थे फॉर्म के और उस वक़्त उनका चश्मां टूटा हुआ था, जभी उन्होंने मुझे बुलाकर फॉर्म भरवाया था। 'कैपिटल लेटर में लिखो, ए एल ए के एच, अब एक खाना छोड़कर लिखो, के यू एम ए आर, फिर एक खाना छोड़ो और लिखो एमआईएसएचआरए, क्या करता है गदहा, भैंसा का चोंथ जैसा गिरा दिया, साफ़-साफ़ लिख, हरूफ ही नहीं बनता आजकल के लड़का लोग का। उस्ताद भी सब इमला लिखाना बंद कर दिए हैं' डांट और नसीहतें, शिक्षा व्यवस्था पर व्यंग भरा प्रहार और साथ में फॉर्म का भरा जाना। पहले एक रफ़, फिर फेयर। तस्दीक़ करना चाहते थे शायद कि मैं उनके इम्तिहान में पास होउंगा भी या नहीं। फॉर्म सही सही भर गया तो उन्होंने मज़ाक में कहा था-'अब तुम पढ़ा लिखा नौकर हो गए, चिट्ठी पत्री करने लायक'। उन्हीं दिनों यूनिट ट्रस्ट में गड़बड़झाला हो गया था शायद। तभी केजी तिवारी फूफा (मेरे छोटे बाबा के दामाद) की सलाह पर उन्होंने यूनिट ट्रस्ट से पैसे निकाल लिए थे। कनखियों से मैंने देखा था, नॉमिनी में मेरा नाम लिखे थे वो। इन्वेस्टमेंट के हर सफ़े पर किसी अज़ीज़ का नाम लिखा हुआ रहता था अलख कुमार मिश्र (बाबूजी का नाम) के साथ। बड़ा मज़ाक बना करता था बाबूजी की इस ख़ब्त का। सुबह होती, चाय-नाश्ते के बाद लेकर बैठ जाते अपना झोला, या फिर आवाज़ देते-महेंदर, ए महेंदर, शम्पी ज़रा इधर आना, ऊ बक्सा खोलो यहां आकर। एक चमड़े का बैग़ था, उसकी परत दर परत खुलती और अलादीन के चिराग़ घिसने की तर्ज़ पर अचानक से किसी अटैची, सूटकेस की चाभी नमूदार हो जाती। कई बार चाभियां उनके जनेऊ के धागे से भी निकलती थीं। एक चाभी लॉकर की थी शायद जो हमेशा उनके साथ ही रहती थी। फिर बक्से से निकलते बैंक के काग़ज़। हम बेज़ार खड़े देखते रहते। कभी बक्से में नई बनियान, लुंगी, अंगोछा,विदेशी साबुन, पैंट-शर्ट का कपड़ा या पेन दिखता तो फट्ट से बाबू से मांगते, पहले वो साफ़ इन्कार कर देते-किसी और काम से रखा है। फिर बक्सा बंद होते होते मिल ही जाती वो चीज़ हमें, सो उनके सूटकेस और बक्से खोलने में यही एक लुत्फ़ था जो हमें आता। उधर बाबूजी काग़ज़ों के रखरखाव में उलझे, इधर हमारी नज़र सूटकेस में बंद माल पर, क्या चीज़ काम की हो सकती है जो मांग लें बाबू से। एक दफ़े मना करेंगे लेकिन आख़िर में तो दे ही देना है उन्हें। लेकिन जो कभी पासबुक छांटकर कहते, ज़रा बैंक चले जाओ, पासबुक पर चढ़वा लाओ, तो सबको बुखार आ जाता और उन्हें ग़ुस्सा। 'इन्हीं के लिए मर रहे हैं और ये सब के सब कामचोर'। कोई न जाता तो खाना खाकर ख़ुद ही हांफते झींकते जा पहुंचते बैंक तक। बैंक का काम और पैसे का हिसाब, कभी नहीं भूले। बैक का बाबू पासबुक में सूद चढ़ा देता और हम घर ले आते। उसके बाद बाबूजी ख़ुद बैठकर हिसाब करते, एक एक पैसा का। 'छौ रुपया कम दिहस है'। और आख़िर में ख़ुद बैंक जाकर हिसाब दुरुस्त कराते। आज ऑटोमेटेड एकाउंट स्टेटमेंट के दौर में वो हमें नसीहतें दिया करते थे-बैंक पर आंख मूंदकर भरोसा ठीक नहीं, अपने से भी हिसाब लगा लिया करो, बेइमान है सब। और हम हंसी में उड़ा देते उनकी बातें। पर क़रीब साल भर पहले जब स्टेट बैंक ने ब्याज़ के हिसाब में इतनी गड़बड़ की जो मेरी नज़र में आ गई, तब जाकर उनकी नसीहतों का वज़न समझ आया। शायद ये उनकी ही सीख है कि कभी बिना गिने पैसे नहीं लेते-देते हम किसी से। अक्सर गुप्ताजी के ढाबे में एक-दो रुपयों का झोल-झाल पकड़ में आ ही जाता है। उम्र इतनी हो गई थी बाबूजी की लेकिन मज़ाल है जो पैसे के हिसाब में गड़बड़ हो जाए।



बाबूजी को याद करने पर जो पहली तस्वीर ज़ेहन में आती है, इलाहाबाद के सोहबतियाबाग़ मुहल्ले में स्थित हमारे मकान की है। मकान के ग्राउंड फ्लोर पर गलियारे में सोफे की एक कुर्सी आगे वाले कमरे से खींचकर बैठते थे वो। मैं उनका दुलारा, हमेशा पहलू से लगा हुआ। अम्मां यानी मेरी दादी से किसी बात पर झगड़ा था, सो कभी आंगन में नहीं उतरते थे, घरके। छोटी बुआ से बतियाना हो या फिर मुझसे लाड़ करना हो, या बहुओं को कुछ सहेजना हो, वही अड्डा था उनका बैठने का। वहीं  पर बैठकर मुझे संतरे की फांकें छीलकर खिलाते रहते और बतियाते जाते। बड़ा धैर्य था उनमें। संतरा खिलाते जाते और फलों के अंग्रेज़ी  नाम याद कराते जाते। एप्पल माने सेब। पीच माने नाशपाती। ग्रेप्स माने अंगूर। ऑरेंज माने संतरा। बीच में मेरा कौतूहल जाग उठता। बाबू सिंघाड़ा को अंग्रेज़ी में क्या कहते हैं? वो सोच में पड़ जाते, फिर कहते-इंग्लैंड में सिंघाड़ा नहीं होता न बेटा, इसलिए सिंघाड़ा की अंग्रेज़ी नहीं होती। मैं फट्ट से अगला सवाल दाग़ देता-तो फ़िर लीची को अंग्रेज़ी में क्या बोलते हैं? बाबूजी  मैट्रिक पास थे। 1942 में पास करते ही नौकरी लग गई थी। यानी अंग्रेज़ों के ज़माने में ही दारोगा हो गए थे। मेरे लिए तो चलता फिरता शब्दकोश थे। डिक्शनरी दो-दो रखी थी घर में, मग़र ज़रूरत न पड़ी बाबूजी के रहते। उस वक़्त अंग्रेज़ी मीडियम के स्कूल में नाम लिखा गया था। सो सारी पढ़ाई अंग्रेज़ी में होती। शाम होते ही सवाल जवाब का सिलसिला शुरू हो जाता। बाबू पाइनएपल माने क्या होता है?’ अन्नानास। बाबू मुर्गी को अंग्रेज़ी में क्या कहते हैं। शी हेन। बड़े होते गए और शब्दों की कठिनता बढ़ती गई। प्रीजुडिस, प्रीपोस्टरस, राइवलरी, एकेडमी, राइम, रिजिड, एल्यूर, एल्बाट्रॉस, वेहेमेंटली, मेलानकोली जैसे शब्दों से पाला पड़ा तो बेहद आसान लगे बाबूजी के सानिध्य में। फिर वाक्यों की ग्रामर सुधरवाने का वक़्त आया। अक्सर वाक्यों में ग़लतियां पकड़ने लगे वो मेरे होमवर्क के। क्या अंग्रेज़ी पढ़ाता है आजकल लोग’?वो बिफर उठे थे, मेरे वाक्यों में ग़लतियां देखकर। पूछा-कौन सी ग्रामर की क़िताब से पढ़ते हो? मैंने मार्टिन और ऱेन की किताब रख दी सामने। बोले-हमारे ज़माने में एक क़िताब चलती थी हिडेन ट्रेज़र, पता नहीं आजकल मिलेगी कि नहीं। मैंने झट पूछा-ये हिडेन ट्रेज़र क्या होता है? हिडेन माने-छुपा हुआ औऱ ट्रेज़र माने ख़ज़ाना...

19 जून 2012 की रात को वो ख़ज़ाना ख़ाली हो गया...मग़र बाबूजी की यादों का ख़ज़ाना तो क़रीब 37 बरस से भर रहा था...इस एक पोस्ट में तो उसकी कुछ बूंदे ही शेयर हो पाई हैं।

























1 टिप्पणी:

ateet ने कहा…

This piece was written 3 years ago, just after the demise of my grand father Pandit Alakh Kumar Mishra but posted just now