शनिवार, 23 जुलाई 2016

याद गली

जब याद गली से गुज़रे हम
तो बीते मौसम याद आए
कुछ जाने चेहरे मुस्काए
कुछ ग़म के साए क़रीब आए
जब घंटों बातें होती थीं
जिनके सिर पैर नहीं पाये
जब अकसर वो ख़ुश होते थे
जब रूठे तो हम मना लाए
वो उनका हाथ पकड़ चलना
हम अब तक भूल नहीं पाए
वो टुक-टुक देखती थीं आंखें
वो बातें करती थीं आंखें
वो बिन बोले हज़ारों बार
कितनी बातें बतला आए
अब वक़्त कहां वो दौर कहां
कोई कह दे उन्हें लौटा लाए
ये दूरी क्यों, ख़ामोशी क्यों
कोई तो यारो बतलाए
क्या वक़्त वो लौट नहीं सकता
जिसे जीकर फिर करार आए

वो गुज़रा हुआ इश्क़

वो आदत ही तो थी
जो पिन्हां थी घर के साजो-सामां में
वो तकिए में पैबस्त ख़ामोश सांसें
वो पर्दों पे टंका उसका मिज़ाज
मेज पर पड़ी क़िताब
वो उसकी ज़ुबां ही तो थी
और
थाली में आती गोल मटोल रोटियां
देती थीं बेतरतीब इश्क़ की गवाही
रेडियो पर बजते गीत सुनाते थे
कि आज हवा का रुख़ क्या है
शिकायतों की लंबी फेहरिस्त भी थी
जो मौसम की तरह रंग बदलती थी
वो दे जाती थी मोहब्बत की तलब का हिसाब
फिर वक़्त की चादर फैलती गई फ़लक की तरह
बेसबब बातों का सिलसिला भी ख़त्म हो गया
ख़ामोशी की इक दीवार थी या
किसी रक़ीब की हस्ती मगर
अब न लब कहते थे
न आंखें बोलती थीं
उसकी पकाई रोटियां भी इनकार कर चुकी थीं
कि अब वो गवाही न देंगी जो सच न हो
क़िस्सा मुख़्तसर ये कि न ज़िंदगी थी
न ज़िंदगी का लुत्फ़
शब-ओ-रोज़ मुर्दा तन को घसीटता मैं
इस जहाने-ख़राब में यूं भटकता था जैसे
ख़ला में कोई भूत यहां-वहां फिरता हो
पर्दे भी अब बदरंग हो चुके थे
यूं के जैसे मेरी तस्वीर हों
वो, जो आदत थी मुझे तन्हा छोड़ गई थी
हाल कुछ यूं हुआ था मेरा
कि जैसे तनहाई भी मेरे ग़म की ज़िंदां में थी
और इस बंद-ए-ग़म से छूट जाने को छटपटाती थी
वाइज़ इसे ज़ीस्त बताते थे
अपने तजुर्बे की बुनियाद पर
पर इस वहशत में भी मैं न मर पा रहा था
क्योंकि मुर्दा तन में भी उसकी आदत की
छुअन का एहसास बाक़ी था
और बाक़ी थी उम्मीद
कि
गुलों में रंग भरेंगे और बाद-ए-नौबहार भी चलेगी
रक़ीब का साया उट्ठेगा
और
वो आफ़ताब सा चेहरा
मुझे नई ज़िदगी की सांसें देगा