रविवार, 14 दिसंबर 2008

अजीब दास्तां है ये...

मुंबई के 26/11 के हमलों के बाद पूरे देश में सिलसिला सा चल पड़ा...हमारी सारी दिक्कतों के लिए हमारे नेता ज़िम्मेदार हैं...इन्हें समंदर में फेंक देना चाहिए...लोकतंत्र को ख़त्म कर देना चाहिए...देश को फौज के हवाले कर देना चाहिए...

26/11 के हमलों के लिए पड़ोसी देश पाकिस्तान को ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है। पर जम्हूरियत को उखाड़ फेंकने के नारे देने वाले उन लोगों से मेरी गुज़ारिश है कि वो सरहद पार के लोगों का हाल पर नज़र डालें फिर ऐसी नारेबाज़ी करें।

जिस लोकतंत्र को हम उखाड़ फेंकने की वक़ालत कर रहे हैं, उसी जम्हूरियत के लिए पाकिस्तानियों ने लंबी लड़ाई लड़ी है। एक बार नहीं कई बार। कितनी क़ुर्बानियां दी हैं इसके लिए...

जिस फौजी शासन की बहाली के लिए हमारे यहां पुरज़ोर वक़ालत की जा रही है, उसी फौजी शासन के बूटों तले दबे कुचले पाकिस्तानियों ने कितना ज़ोर लगाया है फौज का राज ख़त्म करने के लिए।

मुल्क़ की तक़सीम के बाद हमारे देश में लूला लंगड़ा ही सही लोकतांत्रिक शासन ही रहा है, 1975-77 के इमरजेंसी के दौर को छोड़कर। फौजी जनरलों ने हमारे सियासतदानों की फरमाबरदारी में कभी कोई गड़बड़ी नहीं की। आज हम तरक़्क़ी कर रहे हैं, महाशक्ति बनने की बातें कर रहे हैं। दुनिया की इकलौती महाशक्ति अमेरिका भी हमारी सुन रहा है।

अब ज़रा सरहद पार के हालात पर भी नज़र डालें। आज़ादी के दस बरस के भीतर ही उस नए नवेले देश के अरमानों को जनरल अयूब के फौजी बूटों ने कुचल डाला था। जनरल अयूब ने न सिर्फ़ विरोधियों का सफाया किया बल्कि पाकिस्तान की एक पूरी की पूरी सियासी नस्ल को तबाहो बर्बाद कर दिया। 1965 की लड़ाई में उन्हें भारत के हाथों मुंह की खानी पड़ी तब भी अयूब ने तख़्त न छोड़ा। जब कोई सियासतदां अयूब के ख़िलाफ़ खड़ा होने की ज़ुर्रत नहीं जुटा सका तो पाकिस्तान के अवाम ने ये बीड़ा उठाया। अयूब को गद्दी छोड़नी पड़ी। वो निज़ाम को एक और जनरल के हाथों में सौंपकर हट गए। अब जनता की ताक़त से जनाब ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो ने जम्हूरियत की जंग शुरू की। कामयाब भी हुए, पर सत्ता मिलते ही वो भी तानाशाह हो गए। अपने प्यारे मुल्क को अपनी एक ज़िद के चलते दूसरा बंटवारा झेलने पर मजबूर किया। हिंदुस्तान से लड़ाई के लिए फौज को उकसाया। हारे, पर अकड़ न गई। पाकिस्तान की जनता बेचारी फौज और भुट्टो के बीच पिस रही थी। आख़िर, भुट्टो के बनाए हुए एक जनरल जिया उल हक़ ने उन्हें फांसी के तख़्त पर लटका दिया। पाकिस्तान में एक बार फिर जम्हूरियत का क़त्ल हो चुका था। जिया ने मुल्लाओं को पाला पोसा, मज़हबी सियासतदानों को बढ़ावा दिया। राज के ग्यारहवें बरस में वो भी एक संदिग्ध मौत मारे गए। इस दरमियान पाकिस्तान के अवाम ने लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए न जाने कितनी कुर्बानियां दीं। जनरल जिया की मौत के बात पाकिस्तान में ग्यारह बरस तक लोकतंत्र क़ायम रहा, लुटा-पिटा, ठगा सा। बेनज़ीर भुट्टो और जिया के प्यादे नवाज़ शरीफ़ के बीच सत्ता की शह-मात का खेल चलता रहा। आख़िरकार, इस खेल को ख़त्म किया एक फौजी, जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ने 1999 में नवाज़ शरीफ़ का तख़्ता पलटकर। पाकिस्तानी अवाम के लिए एक बार फिर वही दोराहा था, फौजी शासन और लोकतंत्र में से किसी एक को चुनने का। वहां के लोगों ने फिर लोकतंत्र का मुश्किल रास्ता ही चुना। मार्च 2007 में जब मुशर्रफ़ विरोधी प्रदर्शन शुरू हुए तो किसी ने न सोचा था कि अवाम की आवाज़ ऊपरवाले की आवाज़ बनेगी और मुशर्रफ़ का राज भी ख़त्म होगा। पर हुआ यही। तमाम ज़द्दोजहद के बाद लोकतंत्र की पाकिस्तान में फिर वापसी हुई। और एक बार फिर सियासतदां कुत्ते बिल्लियों की तरह सत्ता की रोटी के टुकड़ों के लिए लड़ रहे हैं। पर फिर भी पाकिस्तान की जनता को संतोष है कि उसके अरमान फौजी बूटों तले नहीं कुचले जा रहे। वो बाट जोह रहे हैं उस वक़्त का जब ये नेता फिर से आएंगे उनके दर पर वोट मांगने। तब वो ले लेंगे बदला अपनी उपेक्षा का।

तो साहब इतनी लंबी दास्तां का सबक यही है कि हम लोकतंत्र को दुत्कारें नहीं, पड़ोसी देश के हाल से सबक लें और फौज का जो काम है उसे वही करने दें। अच्छे बुरे लोग हम भी होते हैं सिर्फ़ नेता ही नहीं। लोकतंत्र को खारिज करने की नापाक मांग उठाना ऊपरवाले की आवाज़ को नकारने जैसा है।

7 टिप्‍पणियां:

Manoj Kumar Soni ने कहा…

सच कहा है
बहुत ... बहुत .. बहुत अच्छा लिखा है
हिन्दी चिठ्ठा विश्व में स्वागत है
टेम्पलेट अच्छा चुना है. थोडा टूल्स लगाकर सजा ले .
कृपया वर्ड वेरिफ़िकेशन हटा दें .(हटाने के लिये देखे http://www.manojsoni.co.nr )
कृपया मेरा भी ब्लाग देखे और टिप्पणी दे
http://www.manojsoni.co.nr

ज्योत्स्ना पाण्डेय ने कहा…

हिन्दी ब्लाग जगत में आपका हार्दिक स्वागत है ,टिप्पणी चिटठा पढ़ने के बाद करूंगी .मेरी शुभ कामनाएं आपके साथ हैं .................

मेरे ब्लाग पर आपका स्वागत हैm

तरूश्री शर्मा ने कहा…

बढ़िया कही। जंग जम्हूरियत से कतई नहीं है,लेकिन जम्हूरियत के दुश्मनों से जरूर है। वे चाहे पड़ोस में छिपे हों या फिर हमारे देश में। हमारी जनता भड़की हुई है आतंकवाद से... गुस्से के इस दौर में जायज और नाजायज आवाजें माहौल की हिस्सा बनती ही हैं।

PREETI BARTHWAL ने कहा…

अतीत जी, अच्छा लिखा है आपने, शुभकामनाएं। ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है।

Nitish Raj ने कहा…

अतीत मियां चलते रहो यूं ही धड़ा धड़ छपते रहो...मेरी शुभकामनाएं। word verification को हटा दो।

अभिषेक मिश्र ने कहा…

सही कहा आपने. सैनिक या व्यक्तिवादी शासन इस देश की मिटटी में फल-फूल नहीं सकता. आपकी हिन्दुस्तानी बोली की हिमायत से भी सहमत हूँ. स्वागत ब्लॉग परिवार और मेरे ब्लॉग पर भी.

atit ने कहा…

आप सबों की शुभेच्छाओं का शुक्रिया। प्रयास जारी रखने का भरोसा दिलाता हूं। पब्लिक डिमांड पर WORD VERIFICATION हटा दिया है।