बुधवार, 14 मई 2008

मेरा शहर-इलाहाबाद (भाग एक)


मैं जिस शहर का बाशिन्दा हूं उसका नाम है-इलाहाबाद। हिंदी में ऐसे ही लिखते हैं वर्ना ये नाम अल्लाहाबाद था। अंग्रेज़ों ने अपनी भाषा में इसे इसी नाम से बुलाया-ALLAHABAD. शहर को ये नाम दिया था मुग़ल बादशाह अकबर ने। अकबर यहां की धार्मिकता,यहां की संस्कृति और यहां की आबो-हवा से इतना प्रभावित हुआ कि उसके मुंह से बेसाख़्ता निकल गया-इलाही का आबाद किया हुआ शहर यानी अल्लाहाबाद। अकबर ने आगरे को अकबराबाद, पास के फतेहपुर सीकरी को सिकंदराबाद नाम दिया लेकिन प्रयाग का नाम उसने अल्लाहाबाद ही रखा। वो ईश्वराबाद या भगवानाबाद इसलिए नहीं रख सका क्योंकि वो ऊपरवाले को अल्लाह के नाम से ही बुलाता था और इसीलिए इस अलसाए से शहर का नाम रख दिया। वैसे ये शहर अकबर के ज़माने का नहीं। ये शहर कब का है कुछ पता नहीं। अकबर से पहले इलाहाबाद को लोग प्रयाग के नाम से जानते थे। वैसे प्रयाग कई हैं। मसलन रुद्रप्रयाग,देवप्रयाग,कर्णप्रयाग वगैरह। तो बाक़ियों से फर्क़ करने के लिए इसे कहा जाता था-तीर्थराज प्रयाग। यानी वो सभी ठिकाने जिन्हें देवस्थली कहा जाता है उनका सिरमौर। रामचरितमानस के रचयिता तुलसीदास ने लिखा है-माघ मकरगति रवि जब होई,तीरथपतिहिं आव सब कोई। यानी माघ के महीने में जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है तो सभी देवता तीर्थराज प्रयाग आते हैं। ऐसे शुभ मौक़े पर हिंदू धर्मभीरू भी बड़ी संख्या में प्रयाग में जमा होते रहे हैं। ये जमावड़ा सालाना तौर पर माघ मेले और हर छठें साल अर्धकुंभ और बारहवें साल कुंभ के तौर पर जाना जाता है। माघ के महीने में होने वाले इस धार्मिक जलसे का जोड़ पूरी दुनिया में नहीं मिलता। गंगा,यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम तट पर होने वाले इस जमावड़े को हिंदू धर्म का सबसे बड़ा जलसा कहा जाए तो ग़लत नहीं। हिंदू संस्कृति इस वक़्त अपने उरूज़ पर दिखती है। संतों की भीड़, प्रवचन करते हुए, अपने साल भर के खर्चे का जुगाड़ करने में लगी रहती है। भक्तों की भीड़, धर्म का ज़्यादा से ज़्यादा प्रसाद पाना चाहती है। दिन के वक़्त लाखों लोगों का पेट भरने वाले भंडारों का दौर और रात में इस जगमगाते शहर में लुप्त होती जा रही लोककलाओं की नुमाइश इस मेले की सबसे बड़ी ख़ासियत हैं। और इसी मेले की चहल-पहल से थोड़ा हटकर पड़ा कल्पवासियों का डेरा। वानप्रस्थियों से लेकर संन्यास आश्रम तक के लोगों की लंबी कतारें इस डेरे में माघ का महीना, में ठंडे पानी में डुबकी लगाते और ईश आराधना करते हुए गुज़ारती हैं। अपने परिवार से दूर संतों की संगत में। हालांकि मुझे हमेशा से इनकी नीयत पर संदेह रहा। क्योंकि मैं जब भी किसी कल्पवासी के पास मिलने को गया, उसकी चिंता पीछे छूट गई गृहस्थी को ही लेकर ज़्यादा दिखी। फिर भी आप कल्पवासियों के जज़्बे को सराहे बिना नहीं रख सकेंगे। और इस मेले की सबसे बड़ी ख़ासियत है-शाही स्नान। ये नागा साधुओं का गंगा स्नान होता है। नंग धड़ंग संन्यासी हाथों में अस्त्र शस्त्र लिए तरह तरह की कलाबाज़ियां करते हुए गंगा के तट की तरफ़ बढ़ते हैं। और गंगा के पानी के पास पहुंचते ही इनका बेकाबू होकर डुबकी लगाने को कूदना। बड़ा ही विहंगम दृश्य होता है. कोशिश करूंगा कि वैसे कुछ नज़ारे इस लेख के साथ जोड़ सकूं। इस जमावड़े का सिलसिला कब से शुरू हुआ कहा नहीं जा सकता। लेकिन ज़िक्र आता है कन्नौज के राजा हर्षवर्धन का। जो हर छठें साल कुंभ मेले में आकर अपनी सारी मिल्कियत दान कर देता था। इसका लेखा जोखा दिया है ईसा के बाद की छठीं सदी में भारत के दौरे पर आए चीनी बौद्ध भिक्षु ह्वेनत्सांग ने। उसके पहले के साहित्य में भी ज़िक्र है कि कुषाण राजा कनिष्क,प्रयाग में लगने वाले कुंभ मेले में हिस्सा लेने अपनी राजधानी मथुरा से आता था। वैसे कनिष्क की एक राजधानी पेशावर भी थी जो अब पाकिस्तान में है। इलाहाबाद के पास ही एक जगह है-कौशांबी। मायावती ने अब कौशांबी के नाम पर ज़िला बना दिया है। ये कौशांबी महात्मा बुद्ध के वक़्त के महाजनपदों में से एक था। लेकिन कौशांबी के शासकों का जिस भी क़िताब या साहित्य में ज़िक्र होता है उसमें कहीं भी प्रयाग के कुंभ मेले का ज़िक्र नहीं,ऐसी मेरी जानकारी है। रामचरितमानस और वाल्मीकि की रामायण में बताया गया है कि प्रयाग में गंगा के तट पर महर्षि भरद्वाज का आश्रम था लेकिन इन दोनों महाकाव्यों में भी कुंभ का कोई हवाला नहीं है। वैसे कुंभ मेले के बारे में किंवदंती है कि देवों और दानवों के बीच युद्ध के दौरान जब समुद्र मंथन हुआ तो उसमें से अमृत निकला। इसके लिए देव और दानव भिड़ गए। इस बीच इंद्र इस अमृत कलश को लेकर भाग निकले। उनके इस भागने के दौरान अमृत कई जगह गिर पड़ा। इन्हीं जगहों पर लगते हैं कुंभ के मेले। ये ठिकाने हैं-नासिक,उज्जैन,हरिद्वार और प्रयाग। इनमें प्रयाग का कुंभ अपनी भव्यता के लिए बेमिसाल माना जाता है। अब इस कुंभ की ऐतिहासिकता जो भी हो, प्रयाग शहर को ROME की ही eternal city का दर्जा हासिल है। यानि ऐसा शहर जो हमेशा से ही धरती पर विद्यमान था। सो ये पता नहीं कि प्रयाग शहर को किसने बसाया। लेकिन आदिकाल से लेकर आज तक जिसने भी भारत के hindi heartland पर राज किया है उसने इलाहाबाद को बराबर की अहमियत दी है। मुग़लकाल में भी इलाहाबाद और कड़ा की रियासतें राजस्व के लिहाज से बेहद अहम मानी जाती थीं। अकबर के बेटे सलीम ने जब बाप से बग़ावत की तो इलाहाबाद ही बाग़ी सल्तनत की राजधानी बना था। इलाहाबाद में जहांगीर,अकबर के बनवाए हुए क़िले में ही दरबार लगाता था। मुग़लिया सल्तनत के कमज़ोर होने के बाद अवध के नवाब इस शहर पर मुग़ल बादशाह के नाम पर राज करते थे। 1765 की बक्सर की लड़ाई के बाद ये शहर अंग्रेज़ों और लखनऊ के नवाबों के बीच हुई बंदरबांट में अवध के हिस्से में गया। लेकिन 1857 की जंगे आज़ादी में नवाब के बाग़ी होने के बाद अंग्रेज़ों ने आगरा और अवध के सूबे की राजधानी लखनऊ से बदलकर इलाहाबाद कर दी। इसके बाद पहले विश्व युद्ध के ख़ात्मे तक इलाहाबाद ही united province of agra and oudh की राजधानी बना रहा। इस दौरान अंग्रेज़ों ने शहर में नए सिरे से बस्तियां बसाईं। उस दौर की कई इमारतें आज तक इलाहाबाद को उसकी नई पहचान देती हैं। मसलन आज का मेडिकल कॉलेज कभी government house हुआ करता था जहां राज्य के deputy governer रहा करते थे। अल्फ्रेड पार्क उर्फ़ कंपनी बाग़ स्थित पब्लिक लाइब्रेरी, कभी यूपी की विधानसभा हुआ करती थी। उसी की याद में उस वक़्त के यूपी के विधानसभा अध्यक्ष केशरीनाथ त्रिपाठी ने फरवरी 2003 में यूपी विधानसभा का विशेष सत्र कंपनी बाग़ में कराया था। गोथिक शैली में बनी ये इमारत, थॉर्नहिल मेन मेमोरियल के तौर पर बनाई गई थी। फिर यहां पर यूपी असेंबली की बैठकें होने लगीं और अब यहां पब्लिक लाइब्रेरी है। इसके चारों तरफ एक ख़ूबसूरत पार्क है। इसी के एक हिस्से में है इलाहाबाद का मदन मोहन मालवीय स्टेडियम और दूसरे कोने में गंगानाथ झा संस्कृत विद्यापीठ। इलाहाबाद म्यूज़ियम भी इसी पार्क के परिसर में है। ये विशालकाय पार्क कभी कंपनी बाग़, फिर अल्फ्रेड पार्क और अब चंद्रशेखर आज़ाद उद्यान कहा जाता है। कहते हैं कि सन 1857 में ईस्ट इंडिया कंपनी की कुमुक ने यहीं पर डेरा डाला था। सो इसे कंपनी बाग़ कहा जाने लगा। आज भी लोक चलन में यही नाम है।

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