सोमवार, 19 मई 2008

किसकी फ़जीहत ?

पिछले तीन दिनों से नोएडा का DOUBLE MURDER CASE या आरुषि हत्याकांड मीडिया में ख़ूब चर्चा में है। पहले दिन ख़बर आई कि 14 बरस की किशोर आरुषि को उसके ही बेडरूम में क़त्ल कर दिया गया। पुलिस को आरुषि के मां-बाप ने बताया कि उन्हें नौकर हेमराज पर शक है। पुलिस ने यही बात मीडिया को बताई। मीडिया, ख़ास तौर से टीवी न्यूज़ चैनल चीखने लगे। ग़ौर से देखिए, ज़रा इस शख़्स को देखिए, इसकी मासूमियत पर न जाएं, वगैरह..वगैरह..। अख़बारों ने सनसनी से मामूली गुरेज किया लेकिन बताते रहे कि पहले भी नौकरों ने इसी तरह परिवारों में ख़ून की होलियां खेली हैं। यानी सभी ये मान बैठे थे कि हेमराज ने ही आरुषि का क़त्ल किया। नतीजे पर पहले पहुंचा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, जिसने मानो फ़ैसला ही दे दिया था। कहीं भी किसी भी कॉपी लिखने वाले ने ख़ुद को सनसनी फैलाने से रोकने की कोशिश नहीं की। अगले दिन पता चला कि जिस नौकर हेमराज को इस मामले का कर्ता धर्ता बताया जा रहा था उसकी लाश भी उसी मकान की छत से मिली। इसके बाद मीडिया पिल पड़ा ये जताने में कि नोएडा पुलिस ने कैसी जांच की। कैसे अपनी फ़जीहत कराई। गुनहगार हो गई थी नोएडा पुलिस। लेकिन हक़ीक़त ये है कि ये शोर कर करके न्यूज़ चैनल वाले अपनी फ़जीहत को छुपाना चाहते थे। ज़रा ग़ौर से देखिए वाली लाइनों से उपजी सनसनी को चादर उढ़ाने की जल्दी जो थी। अब सवाल ये है कि क्या पुलिस वालों ने न्यूज़ चैनल्स को स्क्रिप्ट राइटर मुहैया कराए थे। कहीं ये कोशिश क्यों नहीं की गई कि लिखें-पुलिस के मुताबिक़, पुलिस को शक है या पुलिस का आरोप है। तब तो सारे मानिंदों ने तय कर लिया कि हेमराज ही क़ातिल है। वैसे तो सारे चैनलों के पास सुरागरशी करने वाले उम्दा रिपोर्टर हैं। लेकिन इस मामले में सब ने एक सुर से पुलिस की बात पर यक़ीन कर लिया। मुझे लगता है कि हेमराज की लाश मिलने के बाद सबको मिलकर मीडिया पर उंगली उठानी चाहिए थी कि सनसनी फैलाने की रौ में वो इतना बह गए कि ख़बर लिखने के मामूली नियम क़ायदे भुला बैठे। CRIME की किसी भी ख़बर में जब तक जुर्म साबित न हो आप किसी को भी अपराधी करार नहीं दे सकते। लेकिन सारे चैनल खुले आम हेमराज को क़ातिल कहते रहे। मीडिया की आज़ादी का ये नंगा नाच था। ऐसा नहीं है कि इस पहली फजीहत से नोएडा पुलिस या फिर मीडिया ने कोई सबक लिया हो। अगले ही दिन से नई CONSPUIRACY THEORIES गढ़ी जा रही हैं NEWSROOMS में। किसी चैनल का तथाकथित रिपोर्टर आरुषि के घर के पास वाली छत पर जा चढ़ा है तो कोई खबरची पड़ोस के पार्क में किसी स्पेशिस्ट को कब्जियाए हुए हैं। नोएडा पुलिस में बैठे अपने सूत्रों से ऊट पटांग की सूचनाएं निकलवा कर ये रिपोर्टर कम उचक्कों ज़्यादा, क़त्ल की एक से एक कहानी गढ़ने में लगे हैं। कभी विष्णु क़ातिल बन जाता है तो कभी कृष्णा, कभी अपनी बेटी गंवाने वाले तलवार दंपति कटघरे में खड़े किए जाते हैं, इन उचक्कों द्वारा। ख़बर की मार्मिकता, संजीदगी सब ख़त्म। बचा है तो सिर्फ़ इन मसखरों का टीवीयाई ड्रामा, जो हर घंटे, हर चैनल पर खेला जा रहा है। जोकरों अर्थात, अज्ञानी एंकर्स और उचक्के रिपोर्टर्स की फौज, हर घंटे नए नाम से इस हत्याकांड पर शो कर रही है। हर घंटे उसके पास न समझ में आने वाले सवालों की फेहरिस्त है, जिसके जवाब मांगे जा रहे हैं नोएडा पुलिस से। क्यों दे नोएडा पुलिस इन ऊट पटांग सवालों के जवाब। आप मीडिया हैं तो सारे ऊल जलूल सवाल करने का हक़ हासिल कर लिया है क्या। "आरुषि के क़त्ल को 72 घंटे बीत चुके हैं लेकिन पुलिस के हाथ तफ्तीश के नाम पर है सिर्फ़ सिफर। " पुलिस के पास कोई जादुई छड़ी है जो वो रातों रात किसी केस को सुलझा दे। माना कि पुलिसवालों से लापरवाही हुई, उन्होंने तमाम सबूतों से छेड़-छाड़ होने दी। तमाम लिंक्स की अनदेखी की। लेकिन पुलिस का जुलूस निकालने वाले ये मीडिया वाले कौन होते हैं। भई, आपका काम है, जो घटना हुई है उसकी जानकारी पब्लिक को दें। पुलिस की नाकामी की ख़बर दें। लेकिन नहीं, मीडिया के सिर पर तो जुनून सवार है इस क़त्ल के मुजरिमों को सलाखों के पीछे पहुंचाने का। इस जुनून में वो ये भूल गए हैं कि नोएडा से बाहर भी भारत बसता है वहां भी क़त्ल की हज़ारों ऐसी वारदातें होती हैं। ऐसा जुनून उनके लिए तो नहीं दिखता। नंदीग्राम को लेकर तो ऐसा जुनून नहीं दिखता। दिल्ली से दूर है नंदीग्राम इसलिए क्या। लेकिन नंदीग्राम थोड़ी दिखाएंगे टीवी न्यूज़ चैनल वाले। उसमें ग्लैमर थोड़ी है, नोएडा के हत्याकांड जैसा। अब कराओ भैया अपनी फ़ज़ीहत। पब्लिक की नज़र में पुलिस से ज़्यादा आपकी ही हुई है।

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