शनिवार, 3 जनवरी 2009

पुलिसवाला क्या करता है...?


"मैं फोर्स का आदमी हूं।", " क्या फोर्स का आदमी साधू साहब, अभी तक वो आपको ऐसे खदेड़ रहे थे जैसे मुंसीपालिटी वाले किसी आवारा कुत्ते को, क्या मिला आपको फोर्स से " फिल्म अब तक 56 के एंटी हीरो के ये डायलॉग किसी भी संवेदनशील आदमी को झकझोर देने के लिए काफ़ी हैं। कम से कम मुझे तो ऐसा ही लगता है। पता नहीं क्यूं मुझे ये फिल्म बेहद पसंद है। बार-बार देखने को जी करता है। कभी मन भरता ही नहीं। अंत मालूम है पर फिल्म आती दिखे टीवी पर तो ख़ुद को रोक नहीं पाता। मानो दिल से लगा बैठा हूं, फिल्म के हर किरदार, सीन औऱ डायलॉग को। साल 2009 के पहले दिन यूं ही बैठे बैठे फिर से ये फिल्म देख डाली। शुरुआत में सोचा था कि सूचक के जेसीपी बनाए जाने तक के हिस्से को ही देखूंगा, आगे नहीं। नींद से पलकें बोझिल थीं, नाइट शिफ्ट की थकान दिलो-दिमाग पर तारी, पर फिल्म को जब देखने बैठा तो मुंबई क्राइम ब्रांच के इंस्पेक्टर साधू अगाशे के किरदार को फिल्म के अंजाम तक पहुंचते देखने से ख़ुद को रोक सका।

26/11 के मुंबई हमले के दौरान क़रीब 19 पुलिसवालों ने अपनी जान गंवाई। इनमें आईएएस हेमंत करकरे भी थे औऱ हेड कॉन्स्टेबल तुकाराम ओंबले भी। कइयों से तो सिर्फ़ इसलिए तार्रुफ़ हो सका कि मैं मीडिया में काम करता हूं। बार बार सोचा क्या मिला होगा इस तुकाराम को जान लड़ा के। करकरे साहब चाहते तो आतंकी हमले की ख़बर मिलने के बाद पुलिस कंट्रोल रूम से मातहतों को निर्देश देते रहते। वो विजय सालस्कर औऱ अशोक काम्टे के साथ फील्ड में क्यों उतरे। ये सब विचार फिल्म देखते देखते आते जाते रहे। फिर हेमंत करकरे को लेकर अब्दुल रहमान अंतुले का उठाया विवाद भी याद आया। सोचते सोचते फिल्मी दुनिया के शानदार इंस्पेक्टर साधू अगाशे से मैं मज़लूम एएसआई तुकाराम ओंबले पर किस तरह केंद्रित हो गया पता चला। औऱ ये भी सोचा कि मेरी पुलिसवालों के बारे में पहले क्या राय रही थी। हमेशा किसी चौराहे पर बेज़ार से खड़े, या अपने ऑफिस के पास स्थित पुलिस केबिन में नाइट शिफ्ट के वक़्त उगाही करते पुलिसवाले को देखकर यही ख़याल आता, क्या करते हैं ये पुलिसवाले। क्यों आम लोगों को परेशान करते रहते हैं वो। पर जब फिल्म के आख़िरी कुछ लम्हों में ऊपर लिखे डायलॉग चले तो मैं मजबूर हो गया असल ज़िंदगी और फिल्मी किरदारों के घालमेल में।
फिर ख़याल आया यूपी के औरैया ज़िले के थाना दिबियापुर के उस इंचार्ज़ का जिसे हाल ही में सत्ताधारी बीएसपी विधायक शेखर तिवारी की करनी का फल अपनी नौकरी गंवाकर भुगतना पड़ा। मैं सोचने लगा विधायक शेखर और उसके गुर्गों ने इंजीनियर मनोज गुप्ता को जी भरकर मारा, फिर उसे पटक गए दिबियापुर थाने में। सत्ताधारी दल के विधायक थे, हनक में थे। बेचारे थाना इंचार्ज की क्या औकात कि विधायक जी को ऐसा करने से रोकता। उन्हीं के रहमो-करम पर थाने में टिका था। विरोध करता तो एक औऱ तबादला या फिर लाइन हाज़िर होने की बेइज़्ज़ती बर्दाश्त करनी पड़ती। विधायक जी की हनक में बाधा बनता तो बहन मायावती जी या फिर उनके पुलिसिया गुर्गे बृजलाल उसको क़तई बर्दाश्त करते। अब मर गए मनोज गुप्ता औऱ इसका सितम उनके परिजनों के साथ साथ टूटा दिबियापुर के थाना इंचार्ज पर भी। मनोज के परिजनों को सरकारी इमदाद का ऐलान हो गया है। बेटे को सरकारी नौकरी भी मिलेगी। अपने अमर सिंह जी भी दस लाख का चेक भेंट कर आए हैं। और वो बेचारा दिबियापुर का थाना इंचार्ज, बेग़ैरत बेनौकरी हुआ। कोई माई-बाप अब नहीं उसका। पहले थे, शेखर तिवारी जी, जो अब ख़ुद ही जेल में पड़े हैं, मायावती की सियासत का मोहरा बनकर। हां, अपनी करनी का फल तो वो भोग ही रहे हैं। वो दो गनर भी नौकरी से गए जो शेखर की हिफाज़त के लिए लगाए गए थे। ईमानदारी से सोचिए, जिस वक़्त शेखर तिवारी औऱ उसके गुर्गे मनोज गुप्ता को बेरहमी से मार रहे थे, उस वक़्त उन गनर्स में क्या इतनी हिम्मत थी कि वो उन्हें रोक पाते। तीस्ता सीतलवाड जैसी स्वघोषित जनसेवी तर्क दे सकती हैं कि गनर्स कम से कम अपने अफसरान को तो इत्तला कर सकते थे। पर इस सिनेरियो पर भी ग़ौर करें कि गनर्स रात साढ़े तीन बजे औऱैया के एसपी साहब को फोन करते कि जिन विधायक जी की सुरक्षा में आपने हमें लगाया है कप्तान साहब, वो किसी की जान के प्यासे बन बैठे हैं। इमेजिन करिए, क्या जवाब होता एसपी साहब का। यही कि चुप मारे रहो। माया मेमसाब के ख़ासुलख़ास हैं, विधायक जी। हो सके तो मदद ही कर दो ज़ुल्म ढाने में। बर्दाश्त हो तो नज़रें फेर लो, पर मुंह हरगिज खोलना।

संजीदगी से सोचिए, फिल्म अब तक 56 के एंटी हीरो का डायलॉग बड़ा ही प्रासंगिक लगेगा। वही फोर्स, वही अफसर जिन्होंने गनर्स को विधायक जी की हिफ़ाज़त में लगाया था, वो थाना इंचार्ज जो विधायक जी की सिफारिश पर ही एसपी साहब ने भेजा था, वो शिकार हो गए शेखर तिवारी की करतूत का। जिस फोर्स के अफसरान की करतूतों पर पर्दा डाल रहे थे बेचारे, वो ही उनकी नौकरी खा गए। क्या मिला फोर्स से उन्हें।

हेमंत करकरे साहब के बारे में सोचिए। जब वो मालेगांव धमाकों की तफ़्तीश कर रहे थे। अपने सियासी मालिकान के हुक्म पर रोज़ रोज़ तफ़्तीश का बुलेटिन मीडिया के सामने पढ़ रहे थे। शायद वो अब्दुल रहमान अंतुले रहे हों या फिर वो दिग्विजय सिंह जिन्होंने अंतुले के बयान का समर्थन किया और उनकी शहादत पर सवाल उठाए। लेकिन मालेगांव धमाकों की तफ़्तीश के बारे में रोज़ मीडिया से रूबरू होकर वो केस मजबूत नहीं कर रहे थे। वो तो कांग्रेस का एजेंडा पुख़्ता कर रहे थे। बीजेपी की आतंकवाद विरोधी मुहिम को कठघरे में खड़ा कर रहे थे। ये साबित करने की कोशिश कर रहे थे कि आतंकवादी सिर्फ़ मुसलमान नहीं होते, वो हिंदू भी हो सकते हैं, कम से कम भारत में तो ज़रूर ही। और ये हिंदू आतंकवाद सिर्फ़ आमजन तक सीमित नहीं, फौज में भी घुस गया है। ये हेमंत करकरे का तो एजेंडा रहा होगा। पर ज़िंदा हाथी लाख का, मर गया तो किस काम का। सो करकरे साहब मरने के बाद किस काम के। यहां भी हम आप ग़लत ही हैं। राजनीति करने वाले खली में से भी तेल निकालते हैं। सो करकरे की मौत के बाद, उनकी लाश की आख़िरी बूंद सूख जाने के बाद भी उन्हें प्रासंगिक बना बैठे,अपने लिए। सियासत के बैलेंसिंग एक्ट के लिए। हिंदू बनाम मुसलमान की सियासत के लिए।

फोर्स के ये आदमी, तुकाराम ओंबले, विजय सालस्कर, अशोक काम्टे, हेमंत करकरे, विधायक शेखर तिवारी के दो गनर, दिबियापुर के थाना इंचार्ज। सब हुक्मरानों का हुक्म बजा रहे थे। और क्या मिला...तुकाराम या हेमंत करकरे की शहादत अमर नहीं हुई, अंतुले ने उस पर भी सवाल उठाकर उनकी शहादत को भी गंदा कर दिया, मानो किसी ने बदबूदार मल सार्वजनिक स्थान पर फेंक दिया।

लौटता हूं फिल्म अब तक 56 पर। फिल्म का मुख्य किरदार साधू अगाशे अपने मातहत जतिन शुक्ला से कहता है कि सूचक साहब ने कहा तो मैंने मार दिया। मेरा काम सवाल उठाना नहीं। हम तो रंडियां हैं, जैसा ग्राहक कहेगा वैसा करना ही होगा। इसका निस्तार नहीं। लेकिन यही किरदार फिल्म में एक जगह ये भी कहता है कि मैं अपना काम करता हूं, देशभक्ति के लिए नहीं और इस दौरान गोली लग जाए तो वो मेरी ग़लती, क्योंकि ड्यूटी के दौरान अपनी हिफ़ाज़त का ज़िम्मा मेरा ही है। वो सूचक साहब या फिर किसी सरकार का ठेका नहीं। कितने सहज अंदाज़ में वो पुलिसवाले का हाले दिल बयां करता है। शायद यही छोटे-छोटे मगर पैने डायलॉग मेरे इस फिल्म से लगाव की वजह हैं।

3 टिप्‍पणियां:

Vinay ने कहा…

अब तक बेचारों को दिन रात ड्यूटी करने के अलावा कभी और कुछ करते नहीं देखा, कुछ एक साईड बिजनेस भी करते हैं, आप समझ रहे होंगे

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चाँद, बादल और शाम
http://prajapativinay.blogspot.com

निर्मला कपिला ने कहा…

aapkaa lagaav sahi hai

मिहिर ने कहा…

बिल्कुल सही फरमाया....धूमिल की कविता याद आ गई....
"और बाबूजी! असल बात तो यह है कि ज़िन्दा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेंचकर या रण्डियों की
दलाली करके रोज़ी कमाने में
कोई फर्क नहीं है"
(धूमिल की मशहूर कविता "मोचीराम" का एक अंश)