शुक्रवार, 20 मार्च 2015

बेलछी से बूंदी तक



ये बात क़रीब चार दशक पुरानी है...साल था 1977....महीना शायद अगस्त का था...बिहार के बाढ़ ज़िले के एक गांव बेलछी में बहुसंख्यक कुर्मियों ने 11 हरिजनों को मार डाला था। सत्तर और अस्सी के दशक में जातिवाद से जूझते बिहार के लिए ऐसी घटनाएं आम थीं।

मग़र बेलछी को हिंदुस्तान की राजनीति में मील का पत्थर बना दिया एक तस्वीर ने..ये हत्याकांड की तस्वीर नहीं थी...ये तस्वीर थी पू्र्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की...जनता पार्टी के हाथों सत्ता गंवा चुकी थीं उस वक़्त इंदिरा गांधी...और जनता सरकार के हमलों का सामना कर रही थीं। उसी वक़्त ये बेलछी कांड हुआ था...और इंदिरा गांधी ने तय किया था कि सत्ता सुख दोबारा पाने के लिए उन्हें ज़मीन पर उतरना होगा...सो वो बिहार के पटना से सड़क के रास्ते बेलछी गांव की ओर रवाना हुईं...मग़र, गांव से क़रीब पांच किलोमीटर पहले ही सड़क ख़त्म हो गई...बारिश के दिन थे, और चारों ओर पानी और घास...पगडंडी भी पानी में ही डूबी हुई थी, लिहाज़ा इंदिरा ने पॉलिटिकल मास्टरस्ट्रोक खेलते हुए तय किया कि वो हर हाल में बेलछी जाएंगी...और इसके लिए उन्होंने भारत के प्रतीक माने जाने वाले जानवर हाथी की मदद ली...हाथी पर सवार इंदिरा की ये तस्वीर...जनता पार्टी के विरुद्ध एक प्रतीक के तौर पर आज भी याद की जाती है।

ये बात और है कि सत्ता बदली, हुक्मरान बदले, मग़र बेलछी में आज भी न सड़क पहुंच सकी है और न सरकार...अलबत्ता अब वो गांव से बाढ़ ज़िले का एक ब्लॉक  बन गया है।

पर आज...बात बेलछी की नहीं...विरोध की राजनीति के दूसरे प्रतीक की करते हैं...ये तस्वीर है...रफ़्तार और आक्रामक मुद्रा में आगे बढ़ती हुईं, आज की कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी की।

पिछले दस दिनों में इंदिरा की विदेशी बहू और राजनैतिक उत्तराधिकारी बनीं सोनिया गांधी, ख़ुद को अपनी सास के राजनैतिक अंदाज़ में ढालने की पुरज़ोर कोशिश करती नज़र आई हैं।

कभी उन्होंने अपने प्यादे प्रधानमंत्री रहे मनमोहन सिंह के लिए पैदल मार्च किया, तो कभी मोदी सरकार के लाए भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक के विरुद्ध, संसद से राष्ट्रपति भवन तक विपक्षी नेताओं के साथ क़दम ताल मिलाई है। और अब वो उन क्षेत्रों में पहुंचने का प्रयास कर रही हैं, जहां दस सालों के अपने राज़ में उन्होंने शायद  ही जाने की कोशिश की हो।

अचानक सोनिया गांधी को किसानों की इतनी फिक्र हो गई है वो राजस्थान के कोटा और बूंदी जा जाकर किसानों की बर्बादी के मातम में शरीक़ हो रही हैं...उनका ग़म अपने सिर आंखों पर ले रही हैं।

उनका सत्ता के शिखर से राजनीति की ज़मीनी जंग में उतरना...विरोध की आज की राजनीति का प्रतीक बन रहा है। अपनी सासू मां की तर्ज़ पर ये प्रतीक गढ़ना सोनिया के लिए ज़रूरी भी है और मजबूरी भी। ज़रूरी इसलिए कि पिछले साल के लोकसभा चुनाव में पार्टी की शर्मनाक, ऐतिहासिक और रिकॉर्ड पराजय से पस्त कार्यकर्ता को सदमे से उबारना होगा, उसमें नया जोश भरना होगा, ताकि अगले चार सालों के लिए मुख्य विपक्षी दल के अपने नए रोल के लिए नेता-कार्यकर्ता तैयार हो सकें।

और मजबूरी इसलिए क्योंकि सोनिया गांधी के चुने हुए वली अहद या युवराज...राहुल गांधी ऐसा कोई भी पैमाना या प्रतीक गढ़ने में बुरी तरह नाकाम रहे हैं। वो अहम मौक़ों पर ग़ायब रहने की अपनी आदत से मजबूर हैं...और सोनिया व उनके समर्थकों की फौज के पास फिलहाल दूसरे विकल्प नहीं दिख रहे।

वैसे, सोनिया गांधी की पूरी की पूरी राजनीति ही, अपनी सास इंदिरा के आज़माए कामयाब सियासी नुस्खों के रीमेक की है। फिर वो चाहे, सिर पर पल्लू रखने की भारतीय परंपरा हो, नाकाबिल बेटों को उत्तराधिकार की कमान सौंपना हो, या फिर अब पराजन के पश्चात पदयात्रा।

सत्ता में रहते हुए जनता से दूरी इंदिरा गांधी की अदा थी और सोनिया ने इस अदा को आत्मसात किया है। दस सालों के यूपीए के राज में, ऐसी ज़मीनी राजनीति की न उनको ज़रूरत थी, न उन्होंने इसके लिए कभी कोई कोशिश की। ये इंदिरा स्टाइल राजनीति की ट्रू कॉपी थी।

ये बात समझने के लिए फिर से फ्लैशबैक में जाना होगा। 1971 के मध्यावधि चुनावों में शानदार जीत के बाद...इंदिरा ने ख़ुद को पीछे कर लिया था और बेटे संजय को राजनीति के केंद्र में लाने की कोशिश में जुट गईं थीं। 1975 की इमरजेंसी के बाद तो मानो पूरी कमान ही संजय के हाथ में सौंप दी थी उन्होंने। जनता से कटी, कार्यकर्ताओं और नेताओं से कटी इंदिरा गांधी...सरकारी फाइलों में दस्तख़त का प्यादा भर बन गईं थीं।

मग़र 1977 में जब कांग्रेस को पहली बार उनके नेतृ्त्व में हार मिली...तो अचानक इंदिरा को याद आया कि हिंदुस्तान में जनता जनार्दन भी है। सो उन्होंने अपने घर पर जनता दरबार लगाना शुरू कर दिया था। इंदिरा के इस मास्टरस्ट्रोक को उनके विरोधियों को भी अपनाना पड़ा था। जब इंदिरा की तर्ज पर पीएम मोरारजी देसाई और गृह मंत्री चौधरी चरण सिंह ने भी अपने अपने जनता दरबार शुरू कर दिए। इन दरबारों के फ़र्क़ को तवलीन सिंह ने अपनी क़िताब दरबार में बख़ूबी बयां किया है।

सत्ता में रहते हुए, सोनिया ने जनता तो क्या, कांग्रेस के नेताओं तक के लिए दरबार नहीं लगाया। उनका घर, गुु्प्त मुलाक़ातों और राजनैतिक अफवाहों का केंद्र बिंदु रहा। सात रेस कोर्स रोड में बैठे मनमोहन सिंह, का इस्तेमाल सोनिया ने उसी तरह किया जैसे संजय गांधी की चौकड़ी ने इमरजेंसी के दौरान इंदिरा का किया था। और 1980 में संजय की मौत के बाद राजीव गांधी और उनके सलाहकारों ने किया था। जब, कश्मीर में बेहद लोकप्रिय फ़ारुख़ अब्दुल्ला सरकार को बर्ख़ास्त कर दिया गया 1983 में, वो भी उस वक़्त जब एक और बॉर्डर स्टेट पंजाब आतंकवाद से जूझ रहा था। फिर 1984 में...बिना किसी तैयारी के सेना से स्वर्ण मंदिर पर हमला बुलवा दिया। ताज़ा ताज़ा राजनीति में आए राजीव गांधी इतनी हड़बड़ी में थे कि कॉमन सेंस भी इस्तेमाल करने को राज़ी नहीं थे। और इंदिरा गांधी, अपने फेवरेट बेटे को गंवाने के बाद, इमोशनली पूरी तरह राजीव पर निर्भर थीं और हर फ़ैसले पर दस्तख़त करती गईं।

क़रीब तीस साल बाद, गांधी परिवार का इतिहास, कांग्रेस का इतिहास ख़ुद को दोहरा रहा है। बार-बार की नाकामियों के बावजूद, बुनियादी मसलों पर मतभेद के बावजूद, सोनिया गांधी, बेटे राहुल गांधी को ही उत्तराधिकारी बनाने पर आमादा हैं। और इसके लिए सत्तर और अस्सी के दशक में अपनी सास के आज़माए नुस्खों के रीमेक, आज ख़ुद आज़मा रही हैं।

मग़र एक फ़र्क़ बुनियादी है। इंदिरा गांधी को विपक्ष में रहने के दौरान, जनता पार्टी की खिचड़ी का सामना करना पड़ा था। पर, सोनिया के सामने हैं....नरेंद्र मोदी जैसे तपे तपाए, और लोकप्रियता के नए मानदंड बनाने वाले नेता।

ऐसे में सत्तर और अस्सी के दशक के इंदिरा के नुस्खे, उनकी बहू सोनिया के बहुत ज़्यादा काम आएंगे, इसकी कम ही उम्मीद है।

भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक पर, अगर, सरकार अपना पक्ष सही तरीक़े से रखने में नाकाम रही है। तो कांग्रेस की अगुवाई में समूचा विपक्ष भी, केवल मार्च पास्ट की उपलब्धि हासिल कर सका है। दोनों के एप्रोच में बुनियादी फ़र्क़ क्या है, इसे समझाने में सोनिया का विदेशी होना आड़े आता है। और उनके सीनियर नेता तो उन्हीं प्रावधानों का विरोध कर चुके हैं, मंत्री रहते हुए, जिनमें बदलाव की बात आज मोदी सरकार कर रही है।

ये बात और है कि इंदिरा के हाथी की सवारी करने के 38 सालों बाद भी बेलछी जाने के लिए शायद अभी भी बारिश में हाथी की ही ज़रूरत पड़े। मग़र, भारत की राजनीति पिछले चार दशकों में इतना बड़ा बदलाव आया है कि कभी कांग्रेस विरोध से करियर शुरू करने वाले हर नेता आज, उसके साथ क़दमताल करते दिख रहे हैं। और विरोध के केंद्र में दक्षिणपंथी लोकप्रिय सरकार है।


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