शनिवार, 24 मई 2008

जॉन मैक्केन बनाम अर्जुन सिंह

आज़ादी के बाद कभी ब्रिटेन हमारी दिलचस्पी का सबसे अहम देश हुआ करता था। आज अमेरिका है। हम हर तरह से अमेरिकी होने की कोशिश कर रहे हैं। खान-पान में, ओढ़ने-बिछाने में और बोल चाल के साथ लाइफस्टाइल में। हाल ही में वहां से बड़ी दिलचस्प ख़बर आई। अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के लिए किस पार्टी से कौन उम्मीदवार हो इसके लिए भी चुनाव होता है। विपक्षी डेमोक्रेटिक पार्टी में तो अभी बराक ओबामा और हिलेरी क्लिंटन के बीच फ़ैसला होना बाक़ी है, लेकिन सत्ताधारी ग्रैंड ओल्ड रिपब्लिकन पार्टी ने फ़ैसला कर लिया है। वियतनाम वार के हीरो रहे जॉन मैक्केन को राष्ट्रपति चुनाव में रिपब्लिकन उम्मीदवार तय किया गया है। ज़ईफ़ आदमी हैं। उम्र है 72 साल। क़रीब 6 साल युद्ध बंदी रहे हैं वियतनाम में। भागने की कोशिश की तो पकड़े गए। ख़ूब यातनाएं भुगतीं। इतने तंग आ गए कि जान देने की कोशिश की। फिर पकड़े गए, पिटाई हुई। मैक्केन का पूरा शरीर अब भी मानो उन दिनों की दास्तां कहता है। बुश के राष्ट्रपति बनने से पहले भी मैक्केन चुनावी अखाड़े में उतरे थे। तब उम्र कम थी। बुश के मुक़ाबले तो ख़ैर ज़्यादा थी। लेकिन जनता ने तब उन्हें पार्टी का प्रत्याशी नहीं बनाया। आठ बरस बाद बनाया है सो अब ज़ोश ख़रोश से जुटे हैं वोटरों को रिझाने में। इसी दौरान किसी ने छेड़ दिया उनकी उम्र का क़िस्सा। अमेरिका में इतनी उम्र में कोई राष्ट्रपति चुनाव लड़ने की हिम्मत कम ही जुटाता है। लेकिन मैक्केन तो पुराने लड़ाके हैं। मगर, कुछ लोगों को उनका ये लड़ाकापन अखरता है। कहने लगे मैक्केन की तो उम्र बहुत ज़्यादा हो गई है, वो कई बीमारियों से पीड़ित हैं। ऐसा आदमी अमेरिका जैसा ताकतवर देश कैसे चलाएगा। सवाल मौजूं था। मैक्केन ने इसका जवाब दिया। उन्होंने अपनी सारी डॉक्टरी रिपोर्ट दुनिया के सामने रखी। उन्हें कौन सी बीमारियां हैं,शरीर का कौन सा अंग कमज़ोर हो चला है या फिर वो पूरी तरह फिट हैं, ये फ़ैसला लोगों को उनकी मेडिकल रिपोर्ट के आधार पर करना था। मैक्केन की इस मारक चाल से उम्र की तोहमत लगाने वालों की बोलती बंद हो गई। अब मज़े से प्रचार कर रहे हैं।
अब ज़रा अपने देश के एक उदाहरण पर भी नज़र डाल लें। हाल में जिस नेता की मीडिया में सबसे ज़्यादा चर्चा रही उनका नाम है अर्जुन सिंह। पुराने कांग्रेसी खुर्राट हैं। उम्र है 78 साल। सत्ताइस बरस की उम्र में विधायक बन गए थे। तीन बार मध्य प्रदेश के सीएम रहे। केंद्र में मंत्री थे, हैं और ता उम्र बने रहना उनकी ख्वाहिश है। अर्जुन सिंह चाहते हैं कि जिएं तो मंत्री बनके, वरना मंत्री रहते हुए ही मर जाएं। इसके लिए वो कुछ भी करने को तैयार हैं। कभी राहुल बाबा को पीएम बनाने की बात करते हैं तो कभी कैबिनेट की मंज़ूरी के बग़ैर आरक्षण लागू करने का बयान दे डालते हैं। बार-बार उनको आगाह किया जाता है तो वफ़ादारी के क़िस्से सुनाकर विरोधियों को चुप कराने की कोशिश करते हैं। कभी चुरहट लॉटरी कांड में फंसे थे। कब के निकल गए पता तक नहीं चला। ऐसी सियासत करते हैं कि कभी राजीव गांधी ने तंग आकर उन्हें सक्रिय राजनीति से हटाने के लिए पंजाब का राज्यपाल बना दिया था। लेकिन कमाल है अर्जुन सिंह का, फिर से आ गए एक्टिव पॉलिटिक्स में। जब नरसिम्हा राव की सरकार थी तो उसमें मंत्री रहकर उनकी नाक में दम किए रहते थे। अब मनमोहन सिंह जैसे सीधे सादे आदमी की सरकार में मंत्री हैं तो उनकी नाक में दम किए हुए हैं। चाहते हैं कि मनमोहन को हटाकर उन्हें पीएम बना दिया जाए। भले ही वो चलने फिरने में लाचार हों। लेकिन अर्जुन सिंह शरीर की इस लाचारी को इतनी बड़ी बाधा नहीं मानते कि उनके पीएम बनने के रास्ते में आ सके। हाल ही में उन्होंने उदाहरण भी दे डाला दूसरे महायुद्ध के दौरान अमेरिका के सदर रहे फ्रैंकलिन डिलानो रूज़वेल्ट का। रूज़वेल्ट साहब के नाम कई रिकॉर्ड हैं। चार बार अमेरिका के राष्ट्रपति चुने जाने वाले इकलौते शख्स थेय, कमर से नीचे लकवे के शिकार थे, लेकिन शरीर की इस कमज़ोरी को कभी दूसरा विश्व युद्ध जीतने की राह में रोड़ा नहीं बनने दिया। कितनी दिलचस्प बात है अर्जुन सिंह ने उदाहरण दिया तो एक अमेरिकी का ही। ख़ैर रूज़वेल्ट रूज़वेल्ट थे और अर्जुन सिंह तीरंदाज़ हैं। अब ज़रा सोचिए, एक तरफ जॉन मैक्केन हैं, अर्जुन सिंह से छै बरस छोटे ही हैं, लेकिन उम्र और बीमारी को लेकर सवाल उठे तो अपनी मेडिकल रिपोर्ट जनता में जारी कर दी। राष्ट्रपति बनने वाले हैं तो इमेज को साफ-शफ़्फ़ाफ़ रखना चाहते हैं। दूसरी ओर अर्जुन सिंह हैं जो वफ़ादारी के चालीस बरस पुराने क़िस्से सुनाकर पीएम बनना चाहते हैं। अभी हाल ही में यूपीए सरकार ने अपने चार साल पूरे होने का जश्न मनाया। अर्जुन सिंह भी पहुंचे थे। जितनी बार कोई नया नेता आता, फोटोग्राफर फोटो लेने पहुंच जाते, बेचारे अर्जुन सिंह को बार-बार उठने में इतनी दिक्कत हो रही थी कि पूछो मत। जब चलते हैं तो लगता है कि अब गिरे तब गिरे। ऐसा लाचार आदमी देश की शिक्षा व्यवस्था का बोझ ढो रहा है और पीएम बनने की ख्वाहिश भी। उधर जॉन मैक्केन हैं, फिट फाट दिखते हैं तेज़ चलते हैं फर्राटे से बोलते हैं। इधर अर्जुन सिंह हैं। हर चीज़ में दिक्कत ही दिक्कत। दोनों अपने अपने देश के बड़े सटीक प्रतीक हैं।

सोमवार, 19 मई 2008

ज़रूरत है इंक़िलाब की

ग़ुलाबी नगरी जयपुर में एक के बाद एक हुए सिलसिलेवार धमाकों को एक हफ़्ता हो गया है। जांच एजेंसियां तफ़्तीश में जुटी हुई हैं। लेकिन हफ़्ते भर में ये भी तय नहीं कर पाई हैं कि इन धमाकों के पीछे किस संगठन का हाथ है। उन्हें ये भी पता नही चल सका कि क्या इन धमाकों की साजिश में कोई स्थानीय आदमी शामिल था। उनकी जानकारी में ये भी नहीं कि धमाके करने के बाद सारे संदिग्ध कपूर की तरह कैसे लुप्त हो गए। जांच एजेंसियों की ये लापरवाही ही ऐसे घृणित काम करने वालों के हौसले बढ़ाती है। इससे पहले ख़ुफ़िया एजेंसियां भी जयपुर में रची जा रही साजिश को नहीं सूंघ पाईं। धमाके हुए और वो फौरन हरकत में आ गईं। केंद्रीय गृह राज्यमंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने मीडिया को बताया कि धमाकों को लेकर राजस्थान सरकार को पहले ही आगाह कर दिया गया था। राजस्थान सरकार ने फौरन कह दिया कि हमें तो कोई जानकारी नहीं मिली। धमाकों के दो दिन बाद केंद्रीय कैबिनेट की मीटिंग में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम के नारायणन ने माना कि जयपुर की घटनाओं की खुफिया एजेंसियों को ज़रा भी भनक नहीं लगी। यानी नाकारा निकलीं खुफिया एजेंसियां। इसका खामियाज़ा सत्तर लोगों औऱ सैकड़ों परिवारों ने भुगता। तो अब वक़्त है ज़िम्मेदारी तय करने का। जिस मीटिंग में नारायणन साहब ये मान रहे थे कि खुफिया एजेंसियां नाकाम रहीं। उसी में क्यों नहीं आईबी या रॉ के अधिकारी बुलाए गए। सिर्फ़ मेमो के ज़रिए लताड़ने से इन साहिबान की नींद नहीं खुलने वाली। उन्हें मालूम है कि हर ऐसी घटना के बाद सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच शब्दों के बाण चलेंगे। ऐसी घटनाएं होने के फौरन बाद खुफिया एजेंसियां कमोबेश हर अहम शहर में ऐसी घटनाएं होने की आशंका ज़ाहिर करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती हैं। इन काहिलों को बुलाकर क्यों न मौक़े पर ही बर्ख़ास्त करने की ज़लालत भरी सज़ा दी जाए। सिर्फ़ झिड़की से काम नहीं चलेगा। मुझे तो लगता है कि हर ऐसी घटना के बाद उन सारे अफसरान को SUMMARILY DISMISS कर दिया जाना चाहिए जिनकी ज़िम्मेदारी बनती है। ज़िम्मेदारियां तय करने का वक़्त आ गया है। ऐसे इंक़िलाब के लिए देश पुकार रहा है। दुखी आत्मा मनमोहन सिंह अब जांच के लिए एक केंद्रीय एजेंसी बनाने की बातें कर रहे हैं। क्या उन्होंने कोई मानक तय कर रखा था कि देश में इतनी आतंकी घटनाएं होने के बाद ही वो इस तरह के बयान देने से इस मिशन की शुरुआत करेंगे। आतंकवादी बेख़ौफ़ हमारे शहरों-गांवों-कस्बों में घूम रहे हैं। वो अपना संगठन मजबूत कर रहे हैं। वो जहां जी चाहे धमाके कर रहे हैं। वो बेगुनाहों को मार रहे हैं। देश की इमेज की वाट लगा रहे हैं। लेकिन खुफिया एजेंसियां सिर्फ़ ADVISORY जारी कर रही हैं। इन हरामख़ोरों को नंगा करके कोड़े लगाने की ज़रूरत है ताकि आती नस्लें ये समझें कि ख़ुफियागिरी का काम हंसी खेल नहीं,पूरी संजीदगी से करना होगा। आतंकवादियों के इरादों की जानकारी हासिल करनी होगी। उन्हें नापाक धमाके करने से रोकना होगा। इसके लिए खुफिया तंत्र में इंक़िलाब की सख़्त ज़रूरत है। इसकी शुरुआत पूरे मौजूदा ख़ुफिया तंत्र की बर्ख़ास्तगी से होनी चाहिए।

किसकी फ़जीहत ?

पिछले तीन दिनों से नोएडा का DOUBLE MURDER CASE या आरुषि हत्याकांड मीडिया में ख़ूब चर्चा में है। पहले दिन ख़बर आई कि 14 बरस की किशोर आरुषि को उसके ही बेडरूम में क़त्ल कर दिया गया। पुलिस को आरुषि के मां-बाप ने बताया कि उन्हें नौकर हेमराज पर शक है। पुलिस ने यही बात मीडिया को बताई। मीडिया, ख़ास तौर से टीवी न्यूज़ चैनल चीखने लगे। ग़ौर से देखिए, ज़रा इस शख़्स को देखिए, इसकी मासूमियत पर न जाएं, वगैरह..वगैरह..। अख़बारों ने सनसनी से मामूली गुरेज किया लेकिन बताते रहे कि पहले भी नौकरों ने इसी तरह परिवारों में ख़ून की होलियां खेली हैं। यानी सभी ये मान बैठे थे कि हेमराज ने ही आरुषि का क़त्ल किया। नतीजे पर पहले पहुंचा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, जिसने मानो फ़ैसला ही दे दिया था। कहीं भी किसी भी कॉपी लिखने वाले ने ख़ुद को सनसनी फैलाने से रोकने की कोशिश नहीं की। अगले दिन पता चला कि जिस नौकर हेमराज को इस मामले का कर्ता धर्ता बताया जा रहा था उसकी लाश भी उसी मकान की छत से मिली। इसके बाद मीडिया पिल पड़ा ये जताने में कि नोएडा पुलिस ने कैसी जांच की। कैसे अपनी फ़जीहत कराई। गुनहगार हो गई थी नोएडा पुलिस। लेकिन हक़ीक़त ये है कि ये शोर कर करके न्यूज़ चैनल वाले अपनी फ़जीहत को छुपाना चाहते थे। ज़रा ग़ौर से देखिए वाली लाइनों से उपजी सनसनी को चादर उढ़ाने की जल्दी जो थी। अब सवाल ये है कि क्या पुलिस वालों ने न्यूज़ चैनल्स को स्क्रिप्ट राइटर मुहैया कराए थे। कहीं ये कोशिश क्यों नहीं की गई कि लिखें-पुलिस के मुताबिक़, पुलिस को शक है या पुलिस का आरोप है। तब तो सारे मानिंदों ने तय कर लिया कि हेमराज ही क़ातिल है। वैसे तो सारे चैनलों के पास सुरागरशी करने वाले उम्दा रिपोर्टर हैं। लेकिन इस मामले में सब ने एक सुर से पुलिस की बात पर यक़ीन कर लिया। मुझे लगता है कि हेमराज की लाश मिलने के बाद सबको मिलकर मीडिया पर उंगली उठानी चाहिए थी कि सनसनी फैलाने की रौ में वो इतना बह गए कि ख़बर लिखने के मामूली नियम क़ायदे भुला बैठे। CRIME की किसी भी ख़बर में जब तक जुर्म साबित न हो आप किसी को भी अपराधी करार नहीं दे सकते। लेकिन सारे चैनल खुले आम हेमराज को क़ातिल कहते रहे। मीडिया की आज़ादी का ये नंगा नाच था। ऐसा नहीं है कि इस पहली फजीहत से नोएडा पुलिस या फिर मीडिया ने कोई सबक लिया हो। अगले ही दिन से नई CONSPUIRACY THEORIES गढ़ी जा रही हैं NEWSROOMS में। किसी चैनल का तथाकथित रिपोर्टर आरुषि के घर के पास वाली छत पर जा चढ़ा है तो कोई खबरची पड़ोस के पार्क में किसी स्पेशिस्ट को कब्जियाए हुए हैं। नोएडा पुलिस में बैठे अपने सूत्रों से ऊट पटांग की सूचनाएं निकलवा कर ये रिपोर्टर कम उचक्कों ज़्यादा, क़त्ल की एक से एक कहानी गढ़ने में लगे हैं। कभी विष्णु क़ातिल बन जाता है तो कभी कृष्णा, कभी अपनी बेटी गंवाने वाले तलवार दंपति कटघरे में खड़े किए जाते हैं, इन उचक्कों द्वारा। ख़बर की मार्मिकता, संजीदगी सब ख़त्म। बचा है तो सिर्फ़ इन मसखरों का टीवीयाई ड्रामा, जो हर घंटे, हर चैनल पर खेला जा रहा है। जोकरों अर्थात, अज्ञानी एंकर्स और उचक्के रिपोर्टर्स की फौज, हर घंटे नए नाम से इस हत्याकांड पर शो कर रही है। हर घंटे उसके पास न समझ में आने वाले सवालों की फेहरिस्त है, जिसके जवाब मांगे जा रहे हैं नोएडा पुलिस से। क्यों दे नोएडा पुलिस इन ऊट पटांग सवालों के जवाब। आप मीडिया हैं तो सारे ऊल जलूल सवाल करने का हक़ हासिल कर लिया है क्या। "आरुषि के क़त्ल को 72 घंटे बीत चुके हैं लेकिन पुलिस के हाथ तफ्तीश के नाम पर है सिर्फ़ सिफर। " पुलिस के पास कोई जादुई छड़ी है जो वो रातों रात किसी केस को सुलझा दे। माना कि पुलिसवालों से लापरवाही हुई, उन्होंने तमाम सबूतों से छेड़-छाड़ होने दी। तमाम लिंक्स की अनदेखी की। लेकिन पुलिस का जुलूस निकालने वाले ये मीडिया वाले कौन होते हैं। भई, आपका काम है, जो घटना हुई है उसकी जानकारी पब्लिक को दें। पुलिस की नाकामी की ख़बर दें। लेकिन नहीं, मीडिया के सिर पर तो जुनून सवार है इस क़त्ल के मुजरिमों को सलाखों के पीछे पहुंचाने का। इस जुनून में वो ये भूल गए हैं कि नोएडा से बाहर भी भारत बसता है वहां भी क़त्ल की हज़ारों ऐसी वारदातें होती हैं। ऐसा जुनून उनके लिए तो नहीं दिखता। नंदीग्राम को लेकर तो ऐसा जुनून नहीं दिखता। दिल्ली से दूर है नंदीग्राम इसलिए क्या। लेकिन नंदीग्राम थोड़ी दिखाएंगे टीवी न्यूज़ चैनल वाले। उसमें ग्लैमर थोड़ी है, नोएडा के हत्याकांड जैसा। अब कराओ भैया अपनी फ़ज़ीहत। पब्लिक की नज़र में पुलिस से ज़्यादा आपकी ही हुई है।

बुधवार, 14 मई 2008

मेरा शहर-इलाहाबाद (भाग एक)


मैं जिस शहर का बाशिन्दा हूं उसका नाम है-इलाहाबाद। हिंदी में ऐसे ही लिखते हैं वर्ना ये नाम अल्लाहाबाद था। अंग्रेज़ों ने अपनी भाषा में इसे इसी नाम से बुलाया-ALLAHABAD. शहर को ये नाम दिया था मुग़ल बादशाह अकबर ने। अकबर यहां की धार्मिकता,यहां की संस्कृति और यहां की आबो-हवा से इतना प्रभावित हुआ कि उसके मुंह से बेसाख़्ता निकल गया-इलाही का आबाद किया हुआ शहर यानी अल्लाहाबाद। अकबर ने आगरे को अकबराबाद, पास के फतेहपुर सीकरी को सिकंदराबाद नाम दिया लेकिन प्रयाग का नाम उसने अल्लाहाबाद ही रखा। वो ईश्वराबाद या भगवानाबाद इसलिए नहीं रख सका क्योंकि वो ऊपरवाले को अल्लाह के नाम से ही बुलाता था और इसीलिए इस अलसाए से शहर का नाम रख दिया। वैसे ये शहर अकबर के ज़माने का नहीं। ये शहर कब का है कुछ पता नहीं। अकबर से पहले इलाहाबाद को लोग प्रयाग के नाम से जानते थे। वैसे प्रयाग कई हैं। मसलन रुद्रप्रयाग,देवप्रयाग,कर्णप्रयाग वगैरह। तो बाक़ियों से फर्क़ करने के लिए इसे कहा जाता था-तीर्थराज प्रयाग। यानी वो सभी ठिकाने जिन्हें देवस्थली कहा जाता है उनका सिरमौर। रामचरितमानस के रचयिता तुलसीदास ने लिखा है-माघ मकरगति रवि जब होई,तीरथपतिहिं आव सब कोई। यानी माघ के महीने में जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है तो सभी देवता तीर्थराज प्रयाग आते हैं। ऐसे शुभ मौक़े पर हिंदू धर्मभीरू भी बड़ी संख्या में प्रयाग में जमा होते रहे हैं। ये जमावड़ा सालाना तौर पर माघ मेले और हर छठें साल अर्धकुंभ और बारहवें साल कुंभ के तौर पर जाना जाता है। माघ के महीने में होने वाले इस धार्मिक जलसे का जोड़ पूरी दुनिया में नहीं मिलता। गंगा,यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम तट पर होने वाले इस जमावड़े को हिंदू धर्म का सबसे बड़ा जलसा कहा जाए तो ग़लत नहीं। हिंदू संस्कृति इस वक़्त अपने उरूज़ पर दिखती है। संतों की भीड़, प्रवचन करते हुए, अपने साल भर के खर्चे का जुगाड़ करने में लगी रहती है। भक्तों की भीड़, धर्म का ज़्यादा से ज़्यादा प्रसाद पाना चाहती है। दिन के वक़्त लाखों लोगों का पेट भरने वाले भंडारों का दौर और रात में इस जगमगाते शहर में लुप्त होती जा रही लोककलाओं की नुमाइश इस मेले की सबसे बड़ी ख़ासियत हैं। और इसी मेले की चहल-पहल से थोड़ा हटकर पड़ा कल्पवासियों का डेरा। वानप्रस्थियों से लेकर संन्यास आश्रम तक के लोगों की लंबी कतारें इस डेरे में माघ का महीना, में ठंडे पानी में डुबकी लगाते और ईश आराधना करते हुए गुज़ारती हैं। अपने परिवार से दूर संतों की संगत में। हालांकि मुझे हमेशा से इनकी नीयत पर संदेह रहा। क्योंकि मैं जब भी किसी कल्पवासी के पास मिलने को गया, उसकी चिंता पीछे छूट गई गृहस्थी को ही लेकर ज़्यादा दिखी। फिर भी आप कल्पवासियों के जज़्बे को सराहे बिना नहीं रख सकेंगे। और इस मेले की सबसे बड़ी ख़ासियत है-शाही स्नान। ये नागा साधुओं का गंगा स्नान होता है। नंग धड़ंग संन्यासी हाथों में अस्त्र शस्त्र लिए तरह तरह की कलाबाज़ियां करते हुए गंगा के तट की तरफ़ बढ़ते हैं। और गंगा के पानी के पास पहुंचते ही इनका बेकाबू होकर डुबकी लगाने को कूदना। बड़ा ही विहंगम दृश्य होता है. कोशिश करूंगा कि वैसे कुछ नज़ारे इस लेख के साथ जोड़ सकूं। इस जमावड़े का सिलसिला कब से शुरू हुआ कहा नहीं जा सकता। लेकिन ज़िक्र आता है कन्नौज के राजा हर्षवर्धन का। जो हर छठें साल कुंभ मेले में आकर अपनी सारी मिल्कियत दान कर देता था। इसका लेखा जोखा दिया है ईसा के बाद की छठीं सदी में भारत के दौरे पर आए चीनी बौद्ध भिक्षु ह्वेनत्सांग ने। उसके पहले के साहित्य में भी ज़िक्र है कि कुषाण राजा कनिष्क,प्रयाग में लगने वाले कुंभ मेले में हिस्सा लेने अपनी राजधानी मथुरा से आता था। वैसे कनिष्क की एक राजधानी पेशावर भी थी जो अब पाकिस्तान में है। इलाहाबाद के पास ही एक जगह है-कौशांबी। मायावती ने अब कौशांबी के नाम पर ज़िला बना दिया है। ये कौशांबी महात्मा बुद्ध के वक़्त के महाजनपदों में से एक था। लेकिन कौशांबी के शासकों का जिस भी क़िताब या साहित्य में ज़िक्र होता है उसमें कहीं भी प्रयाग के कुंभ मेले का ज़िक्र नहीं,ऐसी मेरी जानकारी है। रामचरितमानस और वाल्मीकि की रामायण में बताया गया है कि प्रयाग में गंगा के तट पर महर्षि भरद्वाज का आश्रम था लेकिन इन दोनों महाकाव्यों में भी कुंभ का कोई हवाला नहीं है। वैसे कुंभ मेले के बारे में किंवदंती है कि देवों और दानवों के बीच युद्ध के दौरान जब समुद्र मंथन हुआ तो उसमें से अमृत निकला। इसके लिए देव और दानव भिड़ गए। इस बीच इंद्र इस अमृत कलश को लेकर भाग निकले। उनके इस भागने के दौरान अमृत कई जगह गिर पड़ा। इन्हीं जगहों पर लगते हैं कुंभ के मेले। ये ठिकाने हैं-नासिक,उज्जैन,हरिद्वार और प्रयाग। इनमें प्रयाग का कुंभ अपनी भव्यता के लिए बेमिसाल माना जाता है। अब इस कुंभ की ऐतिहासिकता जो भी हो, प्रयाग शहर को ROME की ही eternal city का दर्जा हासिल है। यानि ऐसा शहर जो हमेशा से ही धरती पर विद्यमान था। सो ये पता नहीं कि प्रयाग शहर को किसने बसाया। लेकिन आदिकाल से लेकर आज तक जिसने भी भारत के hindi heartland पर राज किया है उसने इलाहाबाद को बराबर की अहमियत दी है। मुग़लकाल में भी इलाहाबाद और कड़ा की रियासतें राजस्व के लिहाज से बेहद अहम मानी जाती थीं। अकबर के बेटे सलीम ने जब बाप से बग़ावत की तो इलाहाबाद ही बाग़ी सल्तनत की राजधानी बना था। इलाहाबाद में जहांगीर,अकबर के बनवाए हुए क़िले में ही दरबार लगाता था। मुग़लिया सल्तनत के कमज़ोर होने के बाद अवध के नवाब इस शहर पर मुग़ल बादशाह के नाम पर राज करते थे। 1765 की बक्सर की लड़ाई के बाद ये शहर अंग्रेज़ों और लखनऊ के नवाबों के बीच हुई बंदरबांट में अवध के हिस्से में गया। लेकिन 1857 की जंगे आज़ादी में नवाब के बाग़ी होने के बाद अंग्रेज़ों ने आगरा और अवध के सूबे की राजधानी लखनऊ से बदलकर इलाहाबाद कर दी। इसके बाद पहले विश्व युद्ध के ख़ात्मे तक इलाहाबाद ही united province of agra and oudh की राजधानी बना रहा। इस दौरान अंग्रेज़ों ने शहर में नए सिरे से बस्तियां बसाईं। उस दौर की कई इमारतें आज तक इलाहाबाद को उसकी नई पहचान देती हैं। मसलन आज का मेडिकल कॉलेज कभी government house हुआ करता था जहां राज्य के deputy governer रहा करते थे। अल्फ्रेड पार्क उर्फ़ कंपनी बाग़ स्थित पब्लिक लाइब्रेरी, कभी यूपी की विधानसभा हुआ करती थी। उसी की याद में उस वक़्त के यूपी के विधानसभा अध्यक्ष केशरीनाथ त्रिपाठी ने फरवरी 2003 में यूपी विधानसभा का विशेष सत्र कंपनी बाग़ में कराया था। गोथिक शैली में बनी ये इमारत, थॉर्नहिल मेन मेमोरियल के तौर पर बनाई गई थी। फिर यहां पर यूपी असेंबली की बैठकें होने लगीं और अब यहां पब्लिक लाइब्रेरी है। इसके चारों तरफ एक ख़ूबसूरत पार्क है। इसी के एक हिस्से में है इलाहाबाद का मदन मोहन मालवीय स्टेडियम और दूसरे कोने में गंगानाथ झा संस्कृत विद्यापीठ। इलाहाबाद म्यूज़ियम भी इसी पार्क के परिसर में है। ये विशालकाय पार्क कभी कंपनी बाग़, फिर अल्फ्रेड पार्क और अब चंद्रशेखर आज़ाद उद्यान कहा जाता है। कहते हैं कि सन 1857 में ईस्ट इंडिया कंपनी की कुमुक ने यहीं पर डेरा डाला था। सो इसे कंपनी बाग़ कहा जाने लगा। आज भी लोक चलन में यही नाम है।

WHAT IS HONEYTRAP

I did not debate on the header or name of my blog. I simply settled for the name-honeytrap. One may ask why this one. To those people, I have no excuse, nothing to offer in explanation. It just happened. Once decided, I set out to know the exact meaning of honeytrap so that I can explain to ones who ask me for it. Dictionary.com offered this meaning of honeytrap--" a strategy whereby an attractive person coerces another person into doing or revealing something; also, a person employing this strategy to entrap another; also written honeytrap ". Initially this phrase was mostly used in espionage cases, but now it is widely used in journalism as well.

So, fellows, honeytrap is a strategy whereby a person uses his/her charm on others to reveal some useful information. I would like this honeytrap to help me get others to reveal their feelings,thoughts,emotions,outbursts,opinions on issues ranging from nothing to everything. One may express himself in any way. It may be prose, poetry, reportage,editorial comment or informative write-up.
I invite every one to just express him/her self. My fellow human beings, dont let anything inside you. Honeytrap offers you a plateform to be you. Hope, my call will not be unattended.

मेरे दोस्त-साथी

कहते हैं कि दोस्त इस दुनिया में ऊपरवाले की सबसे बड़ी नियामत होते हैं। और अगर मैं ये कहूं कि मेरे ऊपर इस मामले में भगवान कुछ ज़्यादा ही मेहरबान रहे हैं तो ग़लत न होगा। मेरी ज़िंदगी में कुछ ही लोगों को दोस्त का दर्जा हासिल हुआ है। लेकिन जिन्हें भी मैंने दोस्त माना है वो पूरी तरह से क़ाबिले ऐतबार रहे हैं। कभी उन्होंने मेरे भरोसे को नहीं तोड़ा। कभी उन्होंने मेरा दिल नहीं दुखाया। कभी उन्होंने मेरी उम्मीद और ज़रूरत के वक़्त मेरा दामन नहीं छोड़ा। मेरे ऐसे दोस्तों को मेरा सलाम। और दोस्ती के जज़्बे को भी। मैंने ताज़ा ताज़ा ब्लॉग लिखना शुरू किया है और इसमें मेरे दोस्तों का ज़िक्र न हो ऐसा हो नहीं सकता। लेकिन उनके बारे में मैं विस्तार से लिखूंगा और जानना चाहूंगा कि दोस्ती के जज़्बे के बारे में बाक़ी दुनिया की क्या राय है। अगर कोई भी मेरा ब्लॉग पढ़ता है तो उससे गुज़ारिश है कि वो दोस्ती के बारे में ज़रूर अपनी राय ज़ाहिर करे। वैसे ये पोस्ट तब तक अधूरा है जब तक दोस्तों के बारे में अपने दिल में छुपी सारी भावनाएं मैं इसमें छाप न दूं। तब तक करें इंतज़ार....

रविवार, 11 मई 2008

जब मैने गाड़ी खरीदी

लोग अक्सर कहते हैं कि मेरा ये सपना था,वो ख्वाब था। मैं तो बस कर डालता हूं। सो कभी ये ख्वाब नहीं देखा कि गाड़ी ख़रीदूंगा,बस ख़रीद ली। Mahindra Renault की Logan. अब चलाना सीख रहा हूं। कल यानी 11 मई 2008 को पहली बार अपनी गाड़ी लेकर सड़क पर टहलाने निकला। लौटते वक़्त खरोंच लगा ली। पर तसल्ली रही कि सुरक्षित घर लौट आया। अब देखिए आगे क्या होता है।

विराम....

विराम तीन दिनों का रहा। जिस रोज़ पिछली बातें लिखीं उसके बाद से तो मानो सियापा हो गया। तीन दिन से वक़्त और मौक़ा नहीं मिल पा रहा है। यानी कोई प्रगति नहीं। ऐसे कैसे चलेगा। यही पूछा शालिनी ने। तो क्या जवाब दूं। लाजवाब जो हो गया। मेरे पास कोई तर्क नहीं हैं। सिवा एक के। मैं सोने के चक्कर में गाड़ी चलाने की प्रैक्टिस करने नहीं जा पा रहा हूं। टारगेट था कि 18 मई को गाड़ी लेकर ही ऑफिस आऊंगा। पर शुक्र है कि 18 मई को छुट्टी है। वरना ये टारगेट हासिल कर पाना मेरे बस में नहीं दिख रहा। कहते हैं जो जागा सो पाया, जो सोया सो खोया। और मैं सोकर, गाड़ी चलाने का लुत्फ़ खो रहा हूं। आमीन....

आख़िरकार मैंने तय कर लिया है कि जल्द से जल्द मुझे अपनी logan ड्राइव करने में आत्मविश्वास हासिल करना है। इसी सिलसिले में मैंने पहले 17 मई और फिर 18 मई को गाड़ी चलाने की प्रैक्टिस जमकर की। 19 को भी यही किया और 20 तारीख़ को मुझमें इतना आत्मविश्वास आ गया कि मैं गाड़ी लेकर पहले डॉक्टर को दिखाने और फिर वहां से हरौला सब्ज़ी लाने चला गया। गाड़ी को पार्क करने और फिर मोड़ने में थोड़ी दिक्कत हुई लेकिन ये इतनी ज़्यादा नहीं थी कि मेरे जज़्बे को ज़रा भी कम कर सके। हरौला का बाज़ार बेहद भीड़ भरा और संकुचित सा है। उसमें गाड़ी चलाकर मेरे अंदर ग़ज़ब का आत्मविश्वास आ गया। और आख़िरकार 20 मई की रात ज़ोरदार बारिश के बीच मैंने फ़ैसला किया कि आज LOGAN से ही दफ़्तर जाऊंगा। पत्नी को मनाने में थोड़ी मुश्किल हुई और ख़ुद को भी तैयार करना इतना आसान नहीं था। लेकिन परिस्थितिजन्य मजबूरी ने मेरा हौसला बढ़ाया और मैं भरी बारिश में निकल प़ड़ा अपनी गाड़ी से दफ्तर। दिल की धड़कनें इतनी तेज़ और बेक़ाबू कि मानो दिल शरीर से उछलकर बाहर आ जाने वाला हो। बहरहाल, ख़ुद की क़िस्मत और अपने ऊपर रही ईश्वर की मेहरबानी से मेरा यक़ीन बढ़ा और मैं चल निकला। कुछ ही दूर जाने पर दिल की धड़कनें सामान्य हो गईं और फिर मैं गाड़ी चलाने का लुत्फ़ उठाने लगा। अभी मैं यक़ीनी तौर पर तो गाड़ी नहीं चला पा रहा हूं। लेकिन कोशिश है कि ये ख़ुद पर का भरोसा मैं जल्द से जल्द हासिल कर लूं। अब जहां ,चाह वहां राह। देखते हैं आगे क्या होता है।

भयावाह विराम---
ज़रा सोचिए, किसी ने अभी जुम्मा-जुम्मा एक महीने पहले गाड़ी चलानी सीखी है और वो एक दिन तय करता है कि बिजली के खंबे को रौंदकर गाड़ी को आगे बढ़ाना है।

मंगलवार, 6 मई 2008

और शुरू हो गया मैं भी

वैसे तो कभी भी कोई भी बात चल निकलती है तो उस पर विशेषज्ञों की टिप्पणियां आने लगती हैं। लेकिन अगर आप चाहते हैं कि आपके मन की ही बात चले तो लिखने लगिए ब्लॉग। आज के ज़माने का चलन यही है। अगर आपकी वाणी में ढाला गया आपका ज्ञान कोई सुनने को तैयार नहीं तो बैठिए इंटरनेट पर और बक डालिए जो भी बकना हो। अब जब ज़माने का यही चलन है तो मैं इससे अलहदा तो हूं नहीं। हां, इलाहाबादी ज़रूर हूं। तो फिर मैं ही क्यों चुप रहूं। बक बक न करूं ब्लॉग पर। तो साहब, मैंने भी बिस्मिल्लाह कर दिया है। देखिए, अब ब्लॉग के इस ज़माने के लोगों को मेरी ये चाल पसंद आती है या नहीं। वैसे आए या न आए, क्या फर्क़ पड़ता है। ब्लॉग तो होता ही इसीलिए है कि आप दिल की भड़ास निकालें। अपना ज्ञान बघारें। वक़्त निकले तो दाल भी बघार दें। सब कुछ आसानी से उपलब्ध है।