मंगलवार, 6 मई 2008

और शुरू हो गया मैं भी

वैसे तो कभी भी कोई भी बात चल निकलती है तो उस पर विशेषज्ञों की टिप्पणियां आने लगती हैं। लेकिन अगर आप चाहते हैं कि आपके मन की ही बात चले तो लिखने लगिए ब्लॉग। आज के ज़माने का चलन यही है। अगर आपकी वाणी में ढाला गया आपका ज्ञान कोई सुनने को तैयार नहीं तो बैठिए इंटरनेट पर और बक डालिए जो भी बकना हो। अब जब ज़माने का यही चलन है तो मैं इससे अलहदा तो हूं नहीं। हां, इलाहाबादी ज़रूर हूं। तो फिर मैं ही क्यों चुप रहूं। बक बक न करूं ब्लॉग पर। तो साहब, मैंने भी बिस्मिल्लाह कर दिया है। देखिए, अब ब्लॉग के इस ज़माने के लोगों को मेरी ये चाल पसंद आती है या नहीं। वैसे आए या न आए, क्या फर्क़ पड़ता है। ब्लॉग तो होता ही इसीलिए है कि आप दिल की भड़ास निकालें। अपना ज्ञान बघारें। वक़्त निकले तो दाल भी बघार दें। सब कुछ आसानी से उपलब्ध है।

1 टिप्पणी:

atit ने कहा…

दुखवा कासे कहूं