रविवार, 11 जनवरी 2009

शालिनी की कही अनकही......

काफ़ी दिनों से जो बात सोच रखी थी सोच रहा हूं कि आज से उसकी शुरुआत कर दूं। शालिनी की लेखनी से मैं हमेशा प्रभावित रहा हूं। लेकिन उसकी ज़िद के चलते मैं अब तक उसकी लेखनी का फ़न औरों के सामने नहीं पेश कर सका। शुरुआत आज से, और कोशिश रहेगी कि ये सिलसिला चलता रहे।

बिस्मिल्लाह कीजिए...

हम मिलेंगे...
फिर कभी
जुदा हो रहे हैं जो इस मोड़ पर
अपने-अपने ग़म लेकर
अपनी अपनी ख़ुशी के साथ
एक ख़लिश जो पैदा होगी
हमारे न मिलने से
उससे महसूस करेंगी,
ये हवाएं...
एक सुगबुगाहट पैदा होगी
उनमे हमारे आने से
जो ये समझते हैं
कि हम नहीं मिलेंगे
फिर कभी
हमारे साथ होने
न होने के बीच
जो अंतराल होगा
उस अंतराल में भी
हम होंगे साथ-साथ ही...

शुरुआत चाहे ख़ास न हो पर आगे बढ़ने का सिलसिला जो अब शुरू हुआ है तो जारी रहेगा...इस उम्मीद के साथ कि अभी नहीं तो आगे चलकर सही चीजें बेहतर होंगी...यक़ीं न हो तो नीचे लिखी पंक्तियों पर ग़ौर कीजिए....

हम व्यर्थ तो नहीं हैं
और हों भी क्यों
हम सीखते हैं, सोचते हैं
देखते हैं, समझते हैं
कुछ है जो
हमें बताता है
हमारा होना...
बिखरा है हमारे आस-पास
हमारा वजूद है
हम घूमते रहते हैं
चारों ओर
शहर की भीड़ में
जंगल के वीराने में
तपती रेत और
समंदर की गहराई में
ढूंढते रहते हैं वजूद
कोई क्यूं बताएगा
कि हम क्यूं हैं...
हमें तो ख़ुद ही ढूंढना है
अपना होना
हम बस यही सोचें
हम व्यर्थ तो नहीं हैं
और हों भी क्यों...

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