रविवार, 11 जनवरी 2009

'औरत' शालिनी की नज़र से...

सदियों की त्रासदी, युगों की घुटन
सालों-साल की छटपटाहट
और पीढ़ियों से दर्द के सलीब पर
टंगा हुआ एक शब्द है-औरत
जो अपने अस्तित्व को मारकर
हर रिश्ते को जीती रहती है
बिना किसी शिकवे-शिकायत के
सारे अत्याचार सहा करती है
जो अपने सपनों को तजकर
हंसती आंखों से आंसू पिया करती है
चुपचाप, नि:शब्द, मौन
ख़ामोशी से यूं ही जिया करती है
घर की दीवारों पर,
रेतीले किनारों पर
सूनी-पनीली आंखों से,
जाने क्या खोजती है
शायद अपना व्यक्तित्व,
शायद अपनी पहचान...
तब वो मां, पत्नी, बहन,बेटी या प्रेयसी
से हटकर
कोशिश करती है ढूंढने की
अपने आपको
और जब कभी वो ढूंढ लेती है
अपना व्यक्तित्व, अपनी पहचान
बना लेती है
अपना कोई मकाम
इस पुरुष प्रधान समाज में
तो उसके अपने ही
प्रत्यंचा लेते हैं तान
चलाते हैं,
तीखे बचनों के कटु बान
जिससे
छलनी हो जाता है उसका हृदय
आंखों से सारे सपने जाते हैं बह
इस पर भी वो चुपचाप ही
सहती जाती है सबकुछ
देखती जाती है सबकुछ
टूटते हुए सपनों को
छूटते हुए अपनों को
पर एक दिन...
जब उसकी सहनशीलता
सीमा तोड़कर...
उतरती है बोलने को
तो बदल जाता है उसका रूप
हर ज़ुल्म सहने वाली
चुप ही रहने वाली
निरीह अबला...
चंडी बन जाती है
जीवन दायिनी का रूप छोड़
विनाशिनी बन जाती है
क्या ये उचित है
बिल्कुल भी नहीं
हमें तो बस कहना है यही
कि औऱत को मुकम्मल रूप मिले
उसके रूप, अस्मिता को
उसके महत्व को,
सम्मान मिले
उसे उसका व्यक्तित्व
उसकी पहचान मिले
जीवन देने वाली वो औरत
इतनी बदनसीब न रहे कि
उसे अपने ही जायों से
अपना हक़ और पहचान मांगनी पड़े।

note--शायद ये लाइनें आशुकवि बनने की शुरुआत थीं।

1 टिप्पणी:

मिहिर ने कहा…

आगाज अच्छा है...लिखते रहें।