रविवार, 11 जनवरी 2009

पाकिस्तान का पॉवर स्ट्रगल


मुंबई पर आतंकी हमले के बाद भारत पाकिस्तान के बीच तनातनी से इस्लामाबाद में चल रहा पॉवर स्ट्रगल खुलकर सामने आ गया है। तीन शख्सीयतें ये साबित करने पर आमादा हैं कि वो ही पाकिस्तान की हुकूमत चला रहे हैं। हालांकि उन तीनों को चुनौती एक चौथे पाए से मिल रही है जो कोई व्यक्ति तो नहीं पर इन तीनों पर भारी ज़रूर है। जिहादी तंज़ीमें।
हिंदुस्तान ने मुंबई हमलों से जुड़े सबूत पाकिस्तान को क्या सौंपे वहां की सियासत में उबाल ही आ गया। तीन चार रोज़ के भीतर वहां के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार महमूद अली दुर्रानी ने मान लिया कि कसाब पाकिस्तानी है। इंकार करते करते वहां की गिलानी सरकार ने भी मान लिया कि हां, साहब कसाब हमारा ही बंदा है। पर दुर्रानी साहब का ये बयान वज़ीरे आज़म गिलानी साहब को ज़रा भी रास न आया। कुछ ही घंटों में उन्होंने दुर्रानी को बाहर का रास्ता दिखा दिया। और इसका ऐलान एक टीवी चैनल को बुलाकर भी ख़ुद ही कर दिया ताकि कोई शको-शुबहा न रहे। वैसे तो पाकिस्तान के मौजूदा वज़ीरे आज़म, यूसुफ़ रज़ा गिलानी और सदर आसिफ़ अली ज़रदारी के बीच तनातनी की ख़बरें वहां की मीडिया में काफ़ी दिनों से थीं। कुछ लोग तो यहां तक कयास लगाने लगे थे कि ज़रदारी जल्द ही गिलानी सरकार को बर्ख़ास्त करके कमान अपने हाथों में लेने वाले हैं। पर पीएम और प्रेसीडेंट, दोनों के खेमों ने इन ख़बरों को बेवजह की बताकर खारिज कर दिया। पर दुर्रानी को लेकर विवाद ने इस सच को सबके सामने पेश कर दिया। बर्ख़ास्तगी के बाद दुर्रानी ने ख़ुद कहा कि उन्होंने कसाब के पाकिस्तानी होने का बयान ज़रदारी साहब की इजाज़त से दिया। इसकी सच्चाई पर इसलिए भी यक़ीन किया जा सकता है कि राष्ट्रपति की क़रीबी सूचना मंत्री शेरी रहमान ने भी मोबाइल मैसेज से कसाब के पाकिस्तानी होने की ख़बर कई विदेशी सफ़ीरों को दी। अपने आपको पाक साफ बताने के लिए दुर्रानी ने पाकिस्तान के निज़ाम के सबसे मज़बूत पाए फौज को भी विश्वास में लिया और दावा किया कि उन्होंने कसाब को पाकिस्तानी बताने से पहले खुफिया एजेंसियों से बात करके इसकी तस्दीक़ कर ली थी।

पाकिस्तान के मौजूदा पॉवर स्ट्रगल की शुरुआत वैसे तो पिछले साल ज़रदारी की ताज़पोशी से ही हो गई थी। पर मुंबई हमले ने इसमें नया एंगल दे दिया। असल में ज़रदारी साहब, फौज की मुश्कें कसना चाहते हैं और चाहते हैं कि सारी ताक़त उनके हाथ में हो। जब पाकिस्तान में जम्हूरियत बहाल हुई तो ज़रदारी ने चुनकर गिलानी को पीएम बनाया था, इस उम्मीद से कि वो जैसा चाहेंगे, वैसी सरकार गिलानी चलाएंगे। उसके बाद शरीफ़ ने बग़ावत की औऱ ज़रदारी को मौक़ा दे दिया राष्ट्रपति बनने का। उनका इक़बाल बुलंद था और फौज की इमेज पब्लिक की नज़र में ख़राब थी। सो वो अपनी माफ़िक चालें चलते गए। राष्ट्रपति बनने से पहले ज़रदारी साहब को जो चाहिए था वो गिलानी से कहते थे और वैसा होता था। पर राष्ट्रपति बनने के बाद वो अपनी इमेज कुछ और चमकाना चाहते थे। गिलानी को पूरी तरह से ज़रख़रीद गुलाम बनाकर रखना चाहते थे। फौज पर नियंत्रण भी उनके एजेंडे में था। आईएसआई को सिविलयन कंट्रोल में लाने की कोशिश की तो फौज ने पलटवार किया। ज़रदारी कैंप को मुंह की खानी पड़ी। फिर मुंबई हमले के बाद ज़रदारी ने भारत को भरोसा दे दिया कि वो आईएसआई चीफ को जांच में सहयोग के लिए दिल्ली भेजेंगे। फौज ने फिर विरोध किया। ज़रदारी को अपने शब्द वापस निगलने पड़े।

कुल मिलाकर लग ये रहा है कि बमुश्किल सत्ता में आए पाकिस्तान के सियासी लीडर आपस में कुत्ते बिल्लियों की तरह लड़ रहे हैं ये जताने के लिए राज मेरा है, तेरा नहीं।

पर पाकिस्तान के तवारीख़ पर नज़र डालें तो उनके लिए सबक है कि लड़ें नहीं एक जुट हों, वरना फ़ायदा तीसरे यानी फौज का हो जाएगा.
शुरुआत देश के पहले राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्ज़ा के क़िस्से से। मिर्ज़ा साहिब, पाकिस्तान के आख़िरी गवर्नर जनरल थे और पहले राष्ट्रपति। वाक़िया 1956 का है। जैसा कि हमने किया था। सन 1950 में अपना संविधान बना डाला था और गवर्नर जनरल का पद ख़त्म हो गया था। साथ ही बर्तानवी महारानी का औपचारिक राज भी। पाकिस्तान को अपना संविधान रचने औऱ अपनी हुकूमत ख़ुदमुख़्तार बनाने में 6 बरस औऱ लग गए थे। 23 मार्च 1956 को पाकिस्तान में पहले आईन के तहत इस्कंदर मिर्ज़ा ने सदर का काम संभाला। कुछ ही महीने बीते थे कि पाकिस्तान के राजनेता आपस में लड़ने झगड़ने लगे. वैसे सियासत में तो ये सब होता ही रहता है। पर मिर्ज़ा साहब को इसकी जड़ नज़र आई देश के संविधान में। उनको लगा कि सारा झगड़ा इस मरदूद संविधान का है। सो उन्होंने पाकिस्तान के पहले आईन को सस्पेंड कर दिया। उस वक़्त की सिविलियन सरकार को बर्ख़ास्त कर दिया और जनरल अयूब ख़ां को बना दिया मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेटर। कुछ लोग ये कहते हैं कि इस्कंदर मिर्ज़ा को देश की नहीं अपने राष्ट्रपति बने रहने की फिक्र थी। वो सिर्फ़ अपना कार्यकाल लंबा करना चाहते थे। बाक़ी सियासतदानों से ख़तरा न हो इसलिए फौजी अयूब के हाथ में कमान सौंप दी। पर हाय री क़िस्मत! अयूब ख़ां ने दो महीने के भीतर इस्कंदर मिर्ज़ा को ऐवाने सदर यानी राष्ट्रपति भवन से बाहर का रास्ता दिखा दिया औऱ ख़ुद जाकर वहां जम गए। बेहाल इस्कंदर मिर्ज़ा को भागकर दूसरे देश में शरण लेनी पड़ी। जब वो 1969 में मरे तो उस वक़्त के फौजी शासक याहिया ख़ान ने उनकी क़ब्र के लिए दो गज ज़मीन भी नहीं दी और ईरान के शाह रज़ा पहलवी ने इस्कंदर मिर्ज़ा का कफ़न दफ़न कराया, तेहरान में। अयूब साहब ने 1958 से लेकर 1968 तक राज किया और विरोध के चलते गद्दी छोड़ी भी तो सौंप दिया यहिया ख़ान के हाथों।
फौज के प्रति पाकिस्तानी अवाम में ग़ुस्सा था। इसका फ़ायदा उठाया ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने। याहिया के सिर पर सवार हो गए। अपने हिसाब से राज चलवाने लगे। 1970 में जब याहिया ने चुनाव कराए तो तब के पूर्वी पाकिस्तान में शेख मुजीब ने जीत का परचम फहराय़ा। भुट्टो ने मुजीब के साथ सत्ता में साझीदारी से इंकार कर दिया. मुजीब को नज़रबंद कराके पूर्वी पाकिस्तान में क़त्लेआम शुरू करा दिया। आपस की लड़ाई में मुल्क़े पाकिस्तान तक़सीम हो गया। भारत से जंग हुई 1971 में और शर्मनाक शिकस्त मिली। जनरल यहिया गए। भुट्टो का राज आय़ा। भुट्टो ने अपने राजकाज के लिए नया संविधान रचवा डाला 1973 में। भुट्टो थे तो राजनेता, पर राज चलाना किसी तानाशाह की तरह चाहते थे। विरोध बर्दाश्त ही न था। चाहिए थे सिर्फ़ जी हज़ूरी करने वाले। उन्होंने बहुतेरे सीनियर जनरलों को दरकिनार करते हुए चुप चाप रहने वाले जिया उल हक़ को बना दिया सेनाध्यक्ष। पार्टी में विरोध हुआ। फौज में विरोध हुआ. पर भुट्टो जिया को ही सेनाध्यक्ष बनाकर माने. 1977 में चुनाव हुए तो भुट्टो की पार्टी पर लगा हेरा फेरी का आरोप। भुट्टो ने तमाम विरोधियों को सलाखों के पीछे डाल दिया। अवाम भड़क उठा। जगह जगह बलवे होने लगे. सियासतदां आपस में लड़े जा रहे थे। मौक़ा मुफ़ीद देख भुट्टो के चुने हुए जिया उल हक़ ने उन्हीं का तख़्ता पलट किया और ख़ुद बन गए मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेटर। तमाम विरोध के बावजूद जिया ने भुट्टो को फांसी पर लटकाकर ही दम लिया.

जिया उल हक़ ने राजनेताओं पर सख़्ती की और नेताओं की अपनी ही नस्ल उपजाई। इसका एक उदाहरण नवाज़ शरीफ़ साहब हैं. जिया के ही पाले पोसे। 1988 में रहस्यमय विमान दुर्घटना में जिया उल हक़ मारे गए. पाकिस्तान में सिविलियन रूल फिर लौटा। ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की डॉटर ऑफ द ईस्ट, बेनज़ीर पीएम बनीं। बेनज़ीर के राज में भ्रष्टाचार अपने उरूज पर थाय, राजनेताओं की आपसी लड़ाई भी। पूरे दस साल यानी 1999 तक बेनज़ीर और नवाज़ शरीफ़ के बीच गद्दी की अदला-बदली होती रही। दो बार बेनज़ीर की सरकार बर्ख़ास्त हुई और दो बार शरीफ़ साहब की। लेकिन ये दोनों ही एकजुट होकर सदर की सरकार बर्ख़ास्त करने की ताक़त छीनने की कोशिश कभी न कर सके। लड़ते ही रहे। शरीफ ने जब 1998 में सत्ता संभाली तो उनका इरादा ज़ुल्फिकार भुट्टो जैसा था। विरोधियों का सफाया और ख़ुद को देश का इकलौता नेता बनाना। बेनज़ीर को विदेश भागना पड़ा। उनके पति ज़रदारी जेल में ठूंस दिए गए। शरीफ ने रास्ता साफ़ देख चाल चली। ख़ुद को मोमिन उल मुल्क़ घोषित करवाने में लग गए। ऐसा होता तो वो देश मे सर्वे सर्वा बन जाते, संविधान, सुप्रीम कोर्ट औऱ मुल्लाओं से भी ऊपर। पर मुशर्रफ़ ने बीच में ही उनकी नैया डुबो दी. दिलचस्प बात ये कि मुशर्रफ़ को भी सेनाध्यक्ष शरीफ़ ने ही बनाया था अपनी सहूलियत के लिए. मुशर्रफ़ ने बमुश्किल राज छोड़ा है। अब ज़रदारी और गिलानी फिर लड़ने में लगे हैं। सत्ता की मलाई बांटने के फेर में। शरीफ से तो पहले ही अलगाव हो चुका है।

पर मेरी तो यही सलाह है ज़रदारी औऱ गिलानी को भी औऱ नवाज़ शरीफ़ साहब को भी कि अपने देश की तारीख़ पर भी नज़र डाल लें और संभल जाएं वरना...

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