शुक्रवार, 10 अप्रैल 2015

जासूसी का जं'जाल'




मुझे जूतों का बड़ा शौक़ है...एक से एक...स्टाइलिश जूते...फॉर्मल, ब्रोजेस, स्नीकर्स, पम्प शूज़, स्लिप ऑन...हर तरह के जूते चाहिए...कुछ हैं और कुछ की तमन्ना है...

पिछले कुछ सालों से मैंने ऑनलाइन शॉपिंग का बड़ा फ़ायदा उठाया है...ई-टेलर्स की तरफ़ से मिलने वाले ऑफर्स के लालच में इंटरनेट पर मैंने बहुत सारी शॉपिंग की है, ख़ास तौर से जूतों की। होम शॉप 18 से शुरुआत करके, फ्लिपकार्ट, अमेज़न, जबॉन्ग, मिंत्रा, ट्रेंडइन, इंडियाटाइम्स, ई बे, स्नैपडील, इन्फीबीम तक बहुत सारे ई- रिटेलर को आज़माया है। और जूतों के अलावा, जींस, शर्ट, ट्राउज़र, क़िताबें, कॉफी, चाय, चीनी, दालें, यहां तक कि हीटर, कूलर और एसी भी मैंने ऑनलाइन ख़रीद डाला।

कुल मिलाकर ये कहूं कि देश में ऑनलाइन शॉपिंग के बढ़ते बाज़ार को फैलाने में मेरा भी बड़ा योगदान रहा है। चूंकि इंटरनेट अब हमारी ज़िंदगी का खाने और पीने जैसा ही अहम हिस्सा हो गया है, इसलिए बड़ा वक़्त इंटरनेट सर्फ़िंग में गुज़रता है। पहले कंप्यूटर ही थे। अब स्मार्टफ़ोन्स पर भी इंटरनेट उपलब्ध है। लिहाज़ा बाज़ार आपके घर में, बेडरूम में, बाथरूम में आपके हाथ में है। कभी भी आप शॉपिंग कर सकते हैं और कभी भी बाक़ी दुनिया से इंटरनेट पर लॉगिन करके जुड़ सकते हैं.



इससे पहले कि आप ये सोचें कि इंटरनेट पर मैं केवल जूतों या कपड़ों की ख़रीदारी के लिए ही जाता हूं, तो साफ़ कर दूं कि मेरी इंटरनेट सर्फ़िंग का बड़ा हिस्सा पेशेवर मजबूरी है। ख़बरों की दुनिया से ताल्लुक़ है तो, तमाम अख़बारों, न्यूज़ एजेंसीज़ और मैग़्ज़ीन्स के वेब-मोबाइल एडिशन्स को खंगालता रहता हूं। पढ़ने का शौक़ है तो तमाम आर्टिकिल या अपनी पसंद के विषयों से जुड़े संदर्भों के लिए भी इंटरनेट पर जाता हूं। आजकल ऑनलाइन ट्रांजैक्शन का ज़माना है तो, लेन-देन का बड़ा काम भी, इंटरनेट और मोबाइल इंटरनेट के ज़रिए ही  होता है।



यानी, इंटरनेट पर बने रहना पेशेगत और प्राइवेट ज़िंदगी की ज़रूरत सा बन गया है। और इसी नेट सर्फ़िंग के चलते ऑनलाइन शॉपिंग की ऐसी लत लगी कि कई बार न चाहते हुए भी कुछ न कुछ ख़रीद लिया। इसके लिए ज़रूरी नहीं होता कि मैं फ्लिपकार्ट या अमेज़न की वेबसाइट या मोबाइल एडिशन खोलूं...कई बार पेज तो मैंने टाइम्स ऑफ इंडिया या फिर पाकिस्तान के अख़बार डॉन का खोला...मग़र, उस वेबपेज के किसी कोने पर मेरी पसंद की चीज़ों का वेब विज्ञापन चिपका दिखा...ख़ास तौर से जूतों का...




पिछले दिनों लुई फिलिप ब्रांड के कई जूते ख़रीदे, जोकि उनके अपने ब्रैंड स्टोर ट्रेंडइन पर मैंने देखे थे। इनका ऑनलाइन ऑर्डर देने के कुछ दिनों बाद से ही, मैं आउटलुक मैग्ज़ीन का पेज खोलूं या फिर सीएनएन का...या फिर फेसबुक पेज ही क्यों न लॉग इन करूं...मुझे हर जगह ट्रेंडइन वेबसाइट और उसपे दिलकश जूतों की तस्वीरें दिखाई देने लगीं...मानों ये तस्वीरें मुझसे कह रही हैं, कि नया जूता आया है, ख़रीद डालो...फलां वाला शू तुम्हारे पास नहीं, वो ले लो ट्रेंडइन पर...



पहले कभी-कभार दिखने वाला ये विज्ञापन, अब तो भूत के माफ़िक मेरे पीछे पड़ गया था। इस विज्ञापन ने ऐसा दबाव बनाया कि न चाहते हुए भी मैंने दो जोड़ी जूते ख़रीद डाले, ख़ुद को समझाने वाले तर्क देकर।

फिर, मैंने एक दिन जबॉन्ग पोर्टल से पेपे की एक जींस ख़रीदी। और उसके बाद तो मानो मुझ पर क़यामत ही आ गयी। मैं जो भी पेज खोलूं, उसमें जबॉन्ग का विज्ञापन, कैलेंडर की तरह लटकता दिखे। पेपे जींस के नए से नए स्टाइल के बारे में बताते हुए, मुझे चिढ़ाते हुए कि फलां जींस तुम्हारे पास नहीं। इस कलर की जींस भी ले ही डालो...फेसबुक खोलूं तो वहां पर ट्रेंडइन और जबॉन्ग दोनों के ही विज्ञापन लटकते दिखें...दोनों ही विज्ञापन भूत की तरह यूं मेरे पीछे पड़े कि इंटरनेट पर जाने से ही वहशत होने लगी। हमेशा ये डर तारी रहने लगा कि कहीं कुछ ख़रीद न लूं...मग़र बात यहीं तक रहती तो ठीक था। स्मार्ट फोन इस्तेमाल करता हूं तो उसपे जो भी पेज खोलूं, वहां ये जींत-जूतों के विज्ञापन पीछे पड़ गए। हाल ये हो गया कि ये विज्ञापन मेरे साए की तरह चलने लगे। जहां भी जाऊं, मेरे सामने लटकते दिखें। चीखते लगें कि फलां चीज़ अब तक क्यों नहीं ख़रीदी भला

मुझे समझ में ही नहीं आया कि आख़िर ऐसा क्यों हो रहा है, मेरे शॉपिंग प्रेफरेंस की जानकारी, कैसे इंटरनेट को हो रही है, कैसे मेरी हर सर्फ़िंग पर वो विज्ञापन सामने आ रहे हैं, जैसे सामान मैं ऑनलाइन ख़रीद चुका हूं। उलझन बड़ी थी और जवाब सूझ नहीं रहा था। तभी मैंने यूरोप की एक ख़बर पढ़ी।

ख़बर ये थी कि यूरोप में 25 हज़ार लोगों ने एक युवक की अगुवाई में सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक पर मुक़दमा ठोका है। ऑस्ट्रिया के रहने वाले, मैक्स श्रेम्स नामक इस युवक की अगुवाई वाले ग्रुप का आरोप है कि फेसबुक उनकी निजता में लगातार दखल दे रहा है और उनकी जासूसी भी कर रहा है।



ख़बर देखी तो मेरा माथा ठनका, आख़िर फ़ेसबुक कैसे लोगों की प्राइवेसी में दखल दे रहा है। भाई, फेसबुक तो बोलने बतियाने, व्यंग करने, दोस्तों को छेड़ने, दुश्मनों पर भड़ास निकाले, अपनी ज़िंदगी के हसीन पल और तस्वीरें शेयर करने का अड्डा है, आख़िर ये फेसबुक जासूस कैसे बन गया। फिर मैंने फेसबुक पर हुए मुक़दमे की तफ्सील से मालूमात हासिल की। मैक्स श्रेम्स नाम ऑस्ट्रियाई युवक ने एक इंटरव्यू में कहीं बताया है कि फेसबुक, उन लोगों की तो जासूसी कर ही रहा है जो उस पर एक्टिव हैं। उन लोगों की खुफियागीरी भी फेसबुक कर रहा है जिनका फेसबुक से कोई वास्ता नहीं, पर वो इंटरनेट इस्तेमाल करते हैं। हालांकि ये बात मुश्किल से कुछ ही लोगों पर लागू होगी क्योंकि आज जो इंटरनेट इस्तेमाल करता है वो फेसबुक पर है।

ऑस्ट्रिया की राजधानी विएना में फेसबुक पर ठोके गए इस मुक़दमे में फेसबुक के यूरोप स्थित हेडक्वार्टर को आरोपी बनाया गया है। फेसबुक का यूरोप में हे़डक्वार्टर आयरलैंड की राजधानी डब्लिन में है। और इस सेंटर से फेसबुक का अस्सी फ़ीसदी काम संचालित होता है। अमेरिका और कनाडा के फेसबुक यूज़र्स के लिए अमेरिका में सेंटर है। बाक़ी दुनिया में फेसबुक का संचालन इसी डब्लिन वाले हेडक्वार्टर से हो रहा है। यानी, डब्लिन में बैठे-बैठे फेसबुक के सिस्टम मैनेजर, यहां हिंदुस्तान में  हमारी जासूसी कर रहे हैं।



यूरोप में फेसबुक पर हुए इस मुक़दमे में 25 हज़ार लोग तो शुरुआती तौर पर शामिल हैं। इनके अलावा पचास हज़ार लोग और भी हैं जो निजता के हनन का आरोप फेसबुक पर लगा रहे हैं और मुक़दमे में आगे चलकर पार्टी बनेंगे।

इसी बीच यूरोप के देश बेल्जियम में प्राइवेसी के नियमों की रखवाली करने वाली संस्था ने एक सर्वे कराया और उसमें ये पाया कि फेसबुक, आपकी इंटरनेट सर्फ़िंग पर खुफिया निगाह रखता है। आप कौन से पेज विज़िट कर रहे हैं, इंटरनेट पर क्या कर रहे हैं। हर गतिविधि पर फ़ेसबुक की खुफिया निगाह है। 

बेल्जियम की ये रिपोर्ट आई तो पूरी दुनिया में हड़कंप मच गया। फेसबुक पर यूरोप में पाबंदी लगाने की मांग की जाने लगी।

पश्चिमी देशों में प्राइवेसी का कॉन्सेप्ट, एकदम अलग है। प्राइवेट स्पेस में किसी का दखल उन्हें बर्दाश्त नहीं। हमारी तरह नहीं कि खाना-पीना, स्नान-ध्यान सब सार्वजनिक स्थान पर। वहां तो इंटरनेट सर्फ़िंग के लिए भी प्राइवेसी लॉ है, जिसके उल्लंघन का आरोप फेसबुक पर लगा है।

आज, सोशल नेटवर्किंग साइट्स का चलन बड़ा अपमार्केट है। वो सूचना के आदान प्रदान का मुफ्त माध्यम है, उसमें रफ़्तार भी है और धार भी। फ़ेसबुक तो आशुकवियों से लेकर शौकिया फोटोग्राफर्स और पंचायतबाज़ों से लेकर एजेंडेबाज़ों का बड़ा अड्डा है। और हिंदुस्तानियों की खुले विचार, खुले दिल की आदत के चलते आज निजी ज़िंदगी की बहुत सी बातें फेसबुक पर शेयर की जा रही हैं।

मग़र यूरोप का मामला अलग है। यहां लोग सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर भी अगर हैं तो चाहते हैं कि उनकी निजता में कोई दखल न हो। मग़र फ़ेसबुक पर यही करने का आरोप है। ये आरोप और भी गंभीर तब हो गया, जब अमेरिका के नागरिक एडवर्ड स्नोडेन ने अमेरिकी खुफिया एजेंसियों की पोल खोली। स्नोडेन के दावों पर यक़ीन करें तो, फेसबुक, ट्विटर, लिंक्डइन और गूगल जैसी हर इंटरनेट कंपनी, अमेरिका की नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी NSA की ग़ुलाम है और उसके निर्देशों पर पूरी दुनिया में लोगों की निजी ज़िंदगी में ताक-झांक कर रही है। वैसे तो अमेरिका का ये तर्क है कि दुनिया में आतंकी हमले रोकने के लिए ये निगरानी ज़रूरी है। इसीलिए, एनएसए, इन इंटरनेट कंपनियों के माध्यम से दुनिया भर में अरबों लोगों की गतिविधियों पर निगाह रख रही है। 



मग़र, फेसबुक ने बेल्जियम के प्राइवेसी वाचडॉग की रिपोर्ट के जवाब में जो तर्क दुनिया के सामने रखे हैं, वो और भी डराने वाले हैं। फेसबुक ने ये बात मानी है कि वो न सिर्फ़ अपने एक्टिव मेम्बर्स की निगरानी करता है, बल्कि ऐसे लोगों के डेटा भी जमा करता है जो इंटरनेट तो प्रयोग करते हैं मग़र फेसबुक पर नहीं हैं। फेसबुक के यूरोपीय कारोबार के वाइस प्रेसीडेंट रिचर्ड एलेन ने अपनी कंपनी के आधिकारिक पेज पर लिखा कि बेल्जियम की रिपोर्ट कई मामलों में ग़लत है। पर एलेन ने ये माना कि वो इंटरनेट यूज़र्स के वेब इम्प्रेशन के डेटा इकट्ठे करते हैं। 

वेब इम्प्रेशन का मतलब ये है कि आपने इंटरनेट पर कौन से पेज विज़िट किए, कौन से डेटा प्रयोग किए, किस वेबसाइट पर आपकी क्या गतिविधि रही, इससे संबंधित जानकारी। इंटरनेट कूकीज़ के माध्यम से ये जानकारी फेसबुक के सर्वर पर पहुंच रही है, हर पल।

इस बात को कुछ ऐसे समझिए। मेरे अपने तजुर्बे से। मैंने पिछले दो हफ़्तों में पेपरफ्राई नामक वेबसाइट पर बेड, लकड़ी के दरवाज़े, शू रैक और मैट्रेस तलाशे। मैंने कुछ ख़रीदा नहीं...मग़र मेरे केवल पेज सर्फिंग के बाद पेपरफ्राई के प्रोडक्ट्स के विज्ञापन वाले ई मेल मे मेलबॉक्स में आने लगे। यही नहीं, ट्रेंड इन और जबॉन्ग की जगह पेपरफ्राई का ऐड अब उन वेब पेजेस पर लटका दिखने लगा जिनको मैं विज़िट करता हूं नियमित रूप से इंटरनेट पर। कुछ दिन बीते ही थे कि मेरे फेवरेट वेबसाइट पेजेस पर पेपरफ्राई की ही तरह की कंपनी अर्बन लैडर के विज्ञापन नज़र आने लगे। अब पेपरफ्राई अगर मध्यम वर्ग की टिम्बर प्रोडक्ट की ऑनलाइन दुकान थी अर्बन लैडर रईसों वाली कैटेगरी की ऑनलाइन शॉप थी। 





कुछ यही हाल मेरे जूतों के शौक़ को लेकर भी हुआ। मैंने लुई फिलिप के जूते ऑनलाइन ख़रीदे थे, जो अपर मिडिल क्लास लेवल का ब्रांड है। उसके कुछ दिनों बाद ही मेरे वेब पेजेस पर इलीट शू ब्रैंड रूश (RUOSH) के विज्ञापन नज़र आने लगे थे और ये इतने ललचाऊ थे कि मेरा बर्ताव एक नशेड़ी जैसा हो गया था और न ज़रूरत थी और न पैसे, मग़र जैसे तैसे करके भी मैंने रूश का एक जोड़ी जूता ख़रीद ही लिया था.


फेसबुक के वाइस प्रेसीडेंट रिचर्ड एलेन ने अपने बचाव में जो तर्क दिए वो तो और भी डराने वाले हैं। एलेन ने अपनी पोस्ट में लिखा कि दूसरी कंपनियां इस तरह से वेब यूज़र की ट्रैकिंग करती हैं, यानी इंटरनेट प्रयोग करने वाले का पीछा करती हैं। मग़र फेसबुक तो वेब इम्प्रेशन मात्र लेता है और अपनी प्राइवेसी पॉलिसी में ये स्पष्ट भी कर देता है कि वो आपके नेट सर्फ़िंग के डेटा का प्रयोग कैसे करेगा...अब मैं यक़ीनी तौर पर ये कह सकता हूं कि हिंदुस्तान में सौ में शायद एक भी फेसबुक यूज़र ऐसा नहीं होगा जिसने फेसबुक की प्राइवेसी पॉलिसी को पढ़ा हो। मैं भी अपवाद नहीं, मैंने भी नहीं पढ़ा है। रिचर्ड एलेन ने अपने बचाव के तर्क में ये भी बताया कि केवल फेसबुक ही नहीं, गूगल, याहू और माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनियां भी आपके इंटरनेट इस्तेमाल की कूकीज़ के ज़रिए आपकी दिलचस्पी के डेटा तैयार करती हैं और फिर उनका कमर्शियल इस्तेमाल होता है। उन कंपनियों के प्रोडक्ट्स बेचने के लिए, जिनमें आपने कभी भी इंटरनेट पर दिलचस्पी दिखाई हो।

फेसबुक के वाइस प्रेसीडेंट रिचर्ड एलेन ने ये भी बताया कि दूसरी कंपनियों की तरह नहीं है फेसबुक कि चोरी छूपे ऐसा करे। वो तो फेसबुक की सुविधा लोगों को मुफ्त में दे रही है। और इसके बदले में केवल उनके वेब इम्प्रेशन लेती है, जिसकी मदद से उसके फेसबुक पेज पर उन कंपनियों और वस्तुओं के विज्ञापन दिखाए जाते हैं, जो प्रयोगकर्ता की दिलचस्पी से जुड़े हों...जैसे कि जूते वाली कंपनियां मेरे पीछे हाथ धोकर पड़ी हैं आजकल। आख़िर फेसबुक को भी तो अपना ख़र्च निकालना है, कर्मचारियों को तनख्वाह देनी है। अपने प्रोडक्ट को लगातार अपडेट करना है और नई सुविधाएं जोड़ते रहनी हैं।

फेसबुक के तर्क अपनी जगह, मग़र यूरोप के कई देश, फ्रांस, इटली, स्पेन, बेल्जियम और फिनलैंड ने फेसबुक के प्राइवेसी के नियमों की और उन पर असल ज़िंदगी में अमल की पड़ताल कर रहा है। 

यूरोपियन यूनियन ने अपने नागरिकों को चेताया है कि अगर वो अपनी निजता और इंटरनेट पर मौजूद डेटा की सुरक्षा चाहते हैं तो अपने फेसबुक अकाउंट बंद कर दें। वरना अमेरिकी खुफिया एजेंसियां, उनके घर तक आ घुसेंगी। 

अब आप ज़रा सोचें कि जब यूरोप के निजता की सुरक्षा वाले क़ानून, फेसबुक की खुफियागीरी के आगे लाचार हैं तो हिंदुस्तान का क्या हाल होगा। जहां पर प्राइवेसी का कॉन्सेप्ट भी अभी आदिम युग में है।

पिछले बरस मैंने जब प्राइवेसी पर फेसबुक पर ही एक पोस्ट लिखी थी तो मेरे ही भाई बंधु मुझे नसीहतें देने लगे थे। 

हां ये बात और है कि मेरी तरह अभी उन्हें ऑनलाइन शॉपिंग की लत नहीं पड़ी, वरना उन्हें मालूम होता कि मैं किस ख़तरे की बात कर रहा हूं। आज ऑनलाइन शॉपिंग पोर्टल ही नहीं, खुफिया एजेंसियां और दूसरे तरह के हित साधने वाले लोग, जैसे कि आतंकी संगठन भी इंटरनेट के माध्यम से अपना असर और दखल, दूर-दूर तक पहुंचाने में लगे हैं। 

ऐसे में अगर मुझे अभी अर्बन लैडर और ट्रेंडइन के विज्ञापन भूतों की तरह सता रहे हैं तो आगे जाकर हालात और भी ख़राब हो सकते हैं, सिर्फ़ मेरे लिए ही नहीं...आपके लिए भी। 

वैसे मुख्यधारा का मीडिया, सनसनी में यक़ीन रखता है, इसीलिए उसके लिए शुक्रवार का दिन नेहरू द्वारा सुभाष चंद्र बोस के परिवार की बीस साल तक जासूसी की ख़बर के लिए महत्वपूर्ण रहा। 

मग़र, मुझे लगता है कि फेसबुक की जासूसी आने वाले दिनों में बड़ी चुनौती बनने जा रही है। तभी तो साल 2010 से ही दुनिया के कई हिस्सों में Quit Facebook अभियान चलाए जा रहे हैं।

अब फेसबुक की जासूसी के जंजाल से आप ख़ुद को कैसे बचाएंगे, ये आपको तय करना है। मेरा काम था आगाह करना, सो मैंने कर दिया।


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