गुरुवार, 9 अप्रैल 2015

आप यूं फासलों से गुज़रते रहे...



आप यूं...फ़ासलों से गुज़रते रहे, दिल पे क़दमों की आवाज़ आती रही...
आहटों से अंधेरे चमकते रहे, रात आती रही  रात जाती रही...

https://www.youtube.com/watch?v=JzI4icCY50o


फ़िल्म शंकर हुसैन का ये नग़मा, इश्क़ में मुब्तिला दो दिलों की दूरियों को जिस ख़ूबसूरती से बयां करता है, उसकी मिसालें कम ही मिलती हैं...

ज़रा गीत के बोलों पर ग़ौर फ़रमाएं---

क़तरा क़तरा पिघलता रहा आसमां...
वो छुपी वादियों में न जाने कहां...
इक नदी दिलरुबा गीत गाती रही...

सबको याद है कि इस गीत को आवाज़ दी सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर ने, और सुरों को संगीत से सजाया था मुहम्मद ज़हूर ख़य्याम ने...मगर बोल किसके थे, इस सवाल का जवाब बहुत कम लोगों को मालूम होगा...

इस सवाल का जवाब दूं, उससे पहले एक और ख़ूबसूरत नग़मा नोश फ़रमाएं--

ये दिल और उनकी निगाहों के साए...
मुझे घेर लेते हैं बाहों के साए...

पहाड़ों को चंचल किरन चूमती है
हवा हर नदी का बदन चूमती है
यहां से वहां तक हैं चाहों के साए

लिपटते ये पेड़ों से बादल घनेरे
ये पल पल उजाले..ये  पल  पल अंधरे
बहुत ठंडे ठंडे हैं राहों के साए...

ये दिल और उनकी निगाहों के साए...

https://www.youtube.com/watch?v=DuFqOua2grc

जयदेव की उम्दा धुनों से सजा ये गीत, प्रेम का क्या असर होता है, बख़ूबी बयां करता है। फ़िल्म प्रेम पर्बत का ये नग़मा, रूमानियत के एवरेस्ट पर पहुंचने जैसा एहसास देता है। जैसे चिलचिलाती धूप में मीलों चलने पर किसी को घने दरख़्त की छाया मिल जाए...वैसा भी एहसास ये गीत दिलाता है।

इन ख़ूबसूरत गीतों के रचयिता थे, तरक़्क़ीपसंद शायर जांनिसार अख़्तर। एमपी के ग्वालियर में जन्मे और पले बढ़े जांनिसार का ख़ानदान, पढ़ने-लिखने वालों का माना जाता था।

जांनिसार ने अपनी ग्रैजुएशन और एमए की डिग्रियां उस वक़्त के शिक्षा के बड़े मरकज़ों में से एक अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से हासिल कीं.

यहां उनकी दोस्ती, उस वक़्त नई शक़्ल ले रहे तरक़्क़ीपसंद तहरीक के अहम किरदारों, मजाज़, अली सरदार जाफरी से हुई। क्रांतिकारी शायर मजाज़ से दोस्ती ने तो रिश्तेदारी की शक्ल अख़्तियार कर ली जब जांनिसार ने मजाज़ की बहन, सफ़िया से निकाह कर लिया।

अलीगढ़ में जिस सोशलिज़्म के कीड़े ने जांनिसार को काटा था, उसका असर उन पर ताज़िंदगी रहा। 1947 में मुल्क़ के आज़ाद  होने पर जब ग्वालियर में फ़साद होने  लगे तो जांनिसार, भोपाल चले गए और वहां हमीदिया कॉलेज में पढ़ाने लगे। मगर, प्रोग्रेसिव राइटर्स की फौज उस वक़्त मुंबई में अड्डा जमा चुकी थी और वहां अली सरदार और इस्मत चुगताई, कृश्न चंदर और राजिंदर सिंह बेदी जैसों को फिल्मी कामयाबी भी मिल चुकी थी।

सो, जांनिसार अख़्तर ने अपने बेटों जावेद अख़्तर और सलमान अख़्तर को पालने पोसने का ज़िम्मा, बीवी सफिया पर छोड़ा और जा पहुंचे सपनों के शहर बंबई।

बंबई में पुराने दोस्त मिले, महफिलें जमने लगीं और वामपंथी विचारधारा से प्रभावित लिक्खाड़ों का ये ग्रुप बॉम्बे ग्रुप के नाम से तरक़्क़ीपसंदों के बीच मशहूर हो गया।

दोस्तों का साथ तो जांनिसार को मुंबई में ख़ूब मिला, पर कामयाबी का नहीं। उधर, मुल्क़ के बंटवारे के बाद, मुसलमान सोशलिस्ट भी अलग थलग से पड़ गए थे। कुल मिलाकर हालात ऐसे हुए की नौबत फ़ाकाकशी तक की आ गई। इस बीच भोपाल में बच्चे पालते पालते जांनिसार की पत्नी सफिया कैंसर की चपेट में आ गई। उधर, बंबई में जांनिसार, कामयाबी के लिए जद्दोज़हद कर रहे थे और इधर सफ़िया मौत से जंग लड़ रही थीं, जो आख़िरकार वो हार गईं। 1953 में उनका इंतकाल हो गया।

और शायद जांनिसार की ज़िंदगी में कामयाबी को एंट्री के लिए सफिया के गुज़र जाने का ही इंतज़ार था। 1955 में आई फ़िल्म यास्मीन से जांनिसार ने कामयाबी का स्वाद चखा। उसके बाद उनके लिखे फ़िल्म नया अंदाज़, छू मंतर और बाप रे बाप के गीत बेहद लोकप्रिय रहे। उन्होंने सी रामचंद्र, मदन मोहन और ख़य्याम के साथ मिलकर कई कमाल के गीत दिए।

जैसे फिल्म नूरी का ये नग़मा

आ जा रे मेरे दिलबर आ जा...

https://www.youtube.com/watch?v=7jEkwPlW-Fo

जांनिसार अख़्तर, मख़मली ग़ज़ल कहने वालों की जमात के अगुवा थे। ख़ुद ग़ज़ल के बारे में उनका ख़याल क्या था...ये दो लाइनें बख़ूबी बयां करती हैं...

हमसे पूछो के ग़ज़ल क्या है, ग़ज़ल का फन क्या है
चंद लफ़्ज़ों में कोई आग छुपा दी जाए...

उनकी कुछ और मशहूर पंक्तियों पर ग़ौर फ़रमाएं...

अशआर मेरे यूं तो ज़माने के लिए हैं
कुछ शे'र फक़त उनको सुनाने के लिए हैं

अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द मिटा दें
कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिए हैं

आंखों में जो भर लोगे तो कांटों से चुभेंगे
ये ख़्वाब तो पलकों पे सजाने के लिए हैं

देखूं तेरे हाथों को लगता है तेरे हाथ
मंदिर में फक़त दीप जलाने के लिए हैं

सोचो तो बड़ी चीज़ है तहज़ीब बदन की
वरना तो बदन आग बुझाने के लिए हैं

ये इल्म का सौदा, ये रिसाले, ये क़िताबें
इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिए हैं

जाने किस बात का दर्द, इन लाइनों के ज़रिए ज़ाहिर करना या फिर परदे में रखना चाह रहे थे जांनिसार अख़्तर...मगर, अंदाज़े से कहें तो शायद अपनी पत्नी सफिया अख़्तर के साथ की नाइंसाफ़ी पर आंसू बहा रहे थे। सफ़िया से हुई दो औलादों में से एक जावेद अख़्तर को दुनिया आज मशहूर शायर के तौर पर सलाम करती है। मग़र जावेद अख़्तर को शायद अपनी मां पर बाप के ज़ुल्मों के दर्द का एहसास कुछ ज़्यादा ही रहा...के जब तक वो ज़िंदा रहे, जावेद अख़्तर की उनसे बिल्कुल नहीं पटी। जावेद अक्सर उनसे लड़कर, अपने पिता के दोस्त साहिर लुधियानवी के घर जाकर पनाह लिया करते थे।

बहरहाल, जांनिसार की काबिलियत को देखते हुए देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें हिंदुस्तान में पिछले तीन सौ सालों के बेहतरीन कलाम जमा करने की ज़िम्मेदारी दी थी। जांनिसार ने इस दिशा में काम भी किया था, मग़र अधूरा। हिंदुस्तान के शायरों पर उनके संकलन हिंदुस्तान हमारा के पहले एडिशन को इंदिरा गांधी ने रिलीज़ किया था। जिसमें गंगा जमुनी तहज़ीब के मुतल्लिक लिखे गए तमाम कलाम जमा किये थे जांनिसार ने...1976 में उनकी मौत के चलते ये काम अधूरा ही रह गया।

वैसे क़िस्मत के खेल देखिए कि जब निजी ज़िंदगी में मुश्किल में थे जांनिसार तो, उनके क़लम से निकले गीतों को फिल्मी दुनिया में ज़बरदस्त कामयाबी मिली...

इसी का फ़ायदा उठाकर जांनिसार ने 1967 में मीना कुमारी और प्रदीप कुमार को लेकर फिल्म बहू बेग़म बनाई, जिसने ठीक-ठाक कारोबार किया।

1976 में अपनी मौत के वक़्त जांनिसार अख़्तर, कमाल अमरोही की फ़िल्म रज़िया सुल्तान के गीत लिख रहे थे।

इस फिल्म के लिए जांनिसार ने दो गीत लिखे...

एक तो ये...

आई ज़ंजीर की झंकार, ख़ुदा ख़ैर करे...
दिल हुआ किसका गिरफ़्तार ख़ुदा ख़ैर करे...
जाने ये कौन मेरी रूह से होकर गुज़रा...
इक क़यामत हुई बेज़ार ख़ुदा ख़ैर करे...

https://www.youtube.com/watch?v=nSqAS9mZXyM


बरसों की कोशिश, मेहनत और शूटिंग के बाद बनी थी फ़िल्म रज़िया सुल्तान। परफेक्शन की तलाश में कमाल अमरोही ने इसमें बहुत पैसा और वक़्त झोंका, पर, लाख कोशिशों के बावजूद, रज़िया सुल्तान सुपरफ़्लॉप रही।

अलबत्ता ख़य्याम के संगीत का जादू इस फ़िल्म में भी लोगों के सिर चढ़कर बोला....इसी फ़िल्म का गीत
ऐ दिले नादां...जांनिसार अख़्तर का लिखा आख़िरी गीत था। चलते चलते सुनिए जांनिसार का आख़िरी फ़िल्मी गीत...

https://www.youtube.com/watch?v=NQu0OgUUZEU









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