सोमवार, 5 अक्तूबर 2015

नया दौर

कुछ सोचो मत। कुछ बोलो मत। कोई सवाल न करो। परंपराओं पर प्रश्नचिन्ह न लगाओ। जो कहा जाए बस उतना ही करो। इसके साथ मत बैठो। उसके साथ न खाओ। ये खाना ठीक नहीं। वो ही तुम खा सकते हो। फलां तुम्हारा दुश्मन है। ये ही तुम्हारा दोस्त है। रीति रिवाज़ आंख मूंदकर मानो। ईश्वर पर तो कतई सवाल न उठाना। ये देखना तुम्हारे लिए ठीक नहीं। वो जो करते आ रहे हो, वो धर्म के हिसाब से ग़लत है। फलां मज़हब तुम्हारी क़ौम का दुश्मन है। ऐसा करना ही ठीक रहेगा, वो जो तुम कर रहे हो वो ग़लत है। भले ही तुम्हारे पुरखों ने क्यों न सिखाया हो। तुम्हारी ये चाल ठीक नहीं, वो चाल चलो जो हम बताएं। ये हमारा है, वो तुम्हारा नहीं है। इसकी बात क्यों मानते हो, उसकी बातें तुम्हारे लिए ज़्यादा मुफ़ीद साबित होंगी।

मशहूर ब्रिटिश-अमेरिकी विचारक थॉमस पेन ने बरसों पहले मांग की थी कि इंसान को स्वतंत्र एवं तार्किक विचार एवं अभिव्यक्ति की आज़ादी होनी चाहिए।

यूं तो वैसी आज़ादी इंसान को कभी किसी दौर में नहीं मिली। लेकिन, अब तक जो कुछ मिला भी है, वो नया दौर ख़त्म करना चाहता है।

वो चाहता है कि आम शहरी वही करे जो उसे बताया जाए। वो सवाल न पूछे, वो सोचने विचारने की शक्ति त्याग दे।

उसे अगर कहा जाए कि मुसलमान हिंदुओं के दुश्मन हैं, तो वो बिना अपने पड़ोसी मुसलमानों के अच्छे बर्ताव को याद किए हुए ये मान ले कि वो तो दुश्मन ही ठहरे उसके।

जब ऐसे आम शहरी के सामने एक फ़ेहरिस्त रखी जाए जिसमें वो चीज़ें लिक्खी हों कि क्या खाना है और वो भी कि क्या नहीं खाना है, तो आंख मूंदकर वो ये लिस्ट आत्मसात कर ले और ईमानदारी से उनको फॉलो करे।

देश में पिछले कुछ दिनों से बीफ बैन से लेकर दादरी में मांस खाने पर क़त्ल की घटनाओं तक, जैसे संवाद, प्रतिवाद हुए हैं, उन्होंने आम नागरिक को झकझोर के रख दिया है।

आख़िर वो अपना दिमाग़ कैसे इस्तेमाल करे, जब उसे इसकी इजाज़त ही नहीं दी जा रही। किसी भी मसले पर दो गुट फौरन बन जाते हैं और बहस छेड़ दी जाती है। ख़ास तौर से टेलिविज़न न्यूज़ चैनल्स पर तो बड़ी और गर्मागर्म बहसों ने उसकी राह हमवार करने के बजाय और मुश्किल बना दी है।

यूं लगता है कि Age of Reason, थॉमस पेन के गुज़र जाने के दो सदी बात फिर से आख़िरी सांसें गिन रहा है, यमराज के द्वार पर दस्तक दे रहा है। अब अभिव्यक्ति की, विचार की, व्यवहार की आज़ादी ख़तरे में है।

लेकिन, इसका ताल्लुक़ 26 मई 2014 को नरेंद्र मोदी के सत्तासीन होने से बिल्कुल नहीं...इस आज़ादी का क्षरण काफ़ी वक़्त से हो रहा है। मौजूदा  निज़ाम में इसका शोर ज़्यादा सुनाई देता है...असल में तो हिंदुस्तान में विचार और व्यवहार की आज़ादी तो कभी मिली ही नहीं।

न आज है, न पहले थी। हिंदुस्तान के लोग पहले परंपराओं की बेड़ियों में जकड़े थे। फिर धर्म ने अपना शिकंजा कसा...और इस घुटन को और बढ़ाया हुक्मरानों ने।

मध्य युग से ही हिंदुस्तान के हुक्मरां, आम नागरिक की स्वतंत्र सोच के ख़िलाफ़ रहे...आज इसका शोर इसलिए ज़्यादा सुनाई दे रहा है क्योंकि आज मीडिया में इस बात का ढोल पीटा जा रहा है। वरना, राजा राममोहन राय से लेकर, सर सैय्यद अहमद ख़ां तक ने इस विचार और व्यवहार की आज़ादी के लिए संघर्ष किया। इसकी ज़रूरत उन्हें इसीलिए पड़ी क्योंकि, ये आसानी से उपलब्ध नहीं थी। उन्हें भी कहा यही गया कि सोचो मत, सवाल मत करो।
लेकिन, उन्होंने सोचा भी और सवाल भी उठाए...लेकिन, सब कोई राजा राममोहन राय या सैय्यद अहमद ख़ां तो नहीं।

इसीलिए, आज मुसलमां को ये साबित करने की ज़रूरत है कि वो हिंदू भावनाओं के प्रति संवेदनशील है। इसके लिए उसे अपने खाने की आदतों में बदलाव लाना होगा।

आज हिंदू को अल्पसंख्यकों के प्रति अपनी संवेदनाएं साबित करनी होंगी, ज़ाहिर तरीक़ों से। सिर्फ़ मन में भाव होने भर से नहीं चलेगा।

और इस निष्ठा की मांग आज की नहीं। कभी सरदार पटेल ने यही मांग अबुल कलाम आज़ाद से की थी। जबकि आज़ाद, जिन्ना की अलग मुस्लिम राष्ट्र की मांग के मुख़ालिफ़ थे। फिर भी, सरदार ने उनसे भारत के प्रति अपनी निष्ठा साबित करने की मांग की, कश्मीर के हवाले से।

इसी निष्ठा के तलबगार राजा राममोहन राय के विरोधी भी थे। जब राजा ने सती प्रथा का विरोध किया तो ये उनकी धार्मिक निष्ठा के डगमगाने का संकेत माना गया, न कि, एक नए युग के द्रष्टा का विचार।

जब सवा सदी पहले सर सैय्यद अहमद ख़ां ने मुसलमानों को आला तालीम लेने का मशविरा दिया, तो उनके इस विचार को भी सामाजिक धार्मिक व्यवस्था के विरुद्ध ठहराया गया।

सवाल उठे कि आख़िर वो किसी को पढ़ने लिखने, आज़ाद ख़याली हासिल करने का मशविरा क्यों दे रहे भला? क्यों वो मज़हबी क़िताबों के बजाय मुसलमानों को साइंस पढ़ने के मशविरे दे रहे थे?

सवाल उठाने पर मंटो को बाग़ी करार दे दिया गया। क्योंकि मंटो ने इंसानियत का सवाल उठाया था। सवाल उठाने पर फ़ैज़ को जेल में क़ैद कर दिया गया।

सवाल उठाने पर जेपी को जेल में ठूंस दिया गया। इसीलिए आज भी यथास्थितिवादी, यही बता रहे हैं कि सवाल मत करो। सोचो मत। कुछ बोलो मत। जितना कहा जाए उतना ही करो। जो कहा जाए, वो मान लो।

ये वक़्त, ये दौर नया नहीं, ये तो राजा राममोहन राय और सर सैय्यद अहमद ख़ां के दौर से मुश्तरका है। ये सिलसिला तो शायद और भी पहले से ही चला आ रहा है। जब दिल्ली के सुल्तानों ने ख्वाज़ा निज़ामुद्दीन को बार बार धमकियां दीं गईं। जब औरंगज़ेब के आदेश पर सरमद का सिर क़लम कर दिया गया।

सवाल उठाने वाले, हर दौर में धमकाए गए हैं, सताए गए हैं, मारे गए हैं, कुचले गए हैं। मगर इंसान का हौसला देखिए कि आज भी सवाल किए जा रहा है...सोच विचार का सिलसिला बंद नहीं हुआ, तमाम ज़ुल्मो-सितम के बावजूद।

तो इससे सबक़ क्या मिलता है? यही न कि बार-बार चुप रहने की सीख मिलने के बाद भी सोचने वाले, विचारने वाले, सवाल करने वाले, चुप नहीं बैठेंगे। जहां, जब ज़रूरत होगी, सवाल उठाएंगे।

सोचने पर बंदिशें लगाने वाला ये नया दौर भी एक दिन पुराना पड़ जाएगा...Age of Reason, फिर अपना परचम लहराएगा।

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